जो आनन्द
अकेले जीने में है
वो
भरी भीड़ में नहीं
जो खुशी खुद से
बतियाने में है
वो और कहीं नहीं
अपनी ही कहानियाँ
नहीं खत्म होती
औरों की बात क्या करें
अजनबी गलियों के मुसाफिरों से
हम कितनी बात करें
जो भी हो
खुद से खुद का
लिखना अच्छा लगता है
क्या इतना काफी नही
क्या फर्क पड़ता है
हमारी कोई पहचान
है या नही
थोड़ा ही आनन्द सही
अकेले जीने में है
वो
भरी भीड़ में नहीं
जो खुशी खुद से
बतियाने में है
वो और कहीं नहीं
अपनी ही कहानियाँ
नहीं खत्म होती
औरों की बात क्या करें
अजनबी गलियों के मुसाफिरों से
हम कितनी बात करें
जो भी हो
खुद से खुद का
लिखना अच्छा लगता है
क्या इतना काफी नही
क्या फर्क पड़ता है
हमारी कोई पहचान
है या नही
थोड़ा ही आनन्द सही
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