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क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत

“ क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत ा “ —गोलोक विहारी राय पिछले कुछ वर्षों...

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Saturday, 29 August 2020

For a long times, China looked like this......
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Tuesday, 5 May 2020

If China balkanized (2027), how would it be divided ? यदि चीन 2027 में विघटित होगा तो उसका स्वरूप क्या होगा ?

If China balkanized (2027), how would it be divided ? यदि चीन 2027 में विघटित होगा तो उसका स्वरूप क्या होगा ?
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Wednesday, 17 January 2018

जम्बूद्वीप (एशिया) का मानचित्र

जम्बूद्वीप का मानचित्र
जम्बूद्वीप ( वर्तमान एशिया)
जम्बूद्वीप (एशिया) का मानचित्र
Jamboodweep Map
Map of Jamboodweep (Asia)
संसार में जब से भी इतिहास लिखने की शुरुवात हुई , तब से आज तक में लिखे गए सभी इतिहासों में दुनिया की सबसे पुराना इतिहास की पुस्तक यदि कोई है तो वह पुराण ही है I सिर्फ एकमात्र पुराण ही है ! सृष्टि निर्माण के प्रारंभ से  तथा  महाभारत काल से पूर्व और बाद में भी यदि उन्नत मानव जीवन को धारण करने वाला कोई दुनिया का हिस्सा,द्वीप था तो वह केवल जम्बूद्वीप ही था ,जिसे आज का एशिया महाद्वीप कहते है|इसी का प्रारम्भिक अतिप्राचीन इतिहास अनेकानेक पुराण है|
            सभी जानते है कि असुर और दानवी प्रकृतियाँ अपने कठोर श्रम एवं पुरुषार्थ से अतुल्य शक्ति एवं सामर्थ्य अर्जित करती है | उस शक्ति , सामर्थ्य का अक्षय स्रोत्र भय, उत्पीडन, विनाश व शोषण होता है|उनका ज्ञान विज्ञानं भी उनके द्वारा किये जा रहे विनाश और संहार को रोक नहीं पाता है|वे दुसरे कि कृति,यश को नकारते है|यहाँ तक कि वे दुसरे के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते है| उसका शोषण ,उत्पीडन करते है|यहाँ तक कि अपने स्वार्थ अव अस्तित्व की रक्षा हेतु उसका सदैव के लिए नामोनिशान भी मिटा देते है | विनाश कर देते है|वे अपनी श्रेष्ठता को ही सर्वोच्च मानते है। दुसरे की श्रेष्ठता को नकारा घोषित कर देते है| कुछ ऐसा ही कमोवेश अमेरिका और यूरोप का इतिहास और प्रकृति रही है और है भी| एक समय ऐसा भी आता है कि इस अत्याचार ,दमन उत्पीडन का अंत इन आसुरी शक्तियों के विनाश व अंत के साथ निश्चित ही होता है| इस समय की कभी कभी लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ती है | वह समय प्रारंभ हो चूका है ,वह समय आ गया है |
              आज आवश्यकता है , जम्बूद्वीप , चाहे उसे जिस नाम से कहे कोई अंतर नहीं अपने अतीत व इतिहास से प्रेरणा प्राप्त करे , अपने भूले , ध्यान रहे जो बिखरा नहीं है , को पढ़े ,उस अतीत से उर्जा प्राप्त करे , वर्तमान की सारी कटुताओं को सुलझाकर विस्मृत कर ले । एक नई एकता , दृढ़ता, शांति  व संकल्प के साथ एक नए वातावरण में  एक नए युग का , एक नए विश्व का निर्माण करे , जो विश्व को इस संक्रांति, संक्रमण की बेला में मार्गदर्शन दे सके, एक नई दिशा दे सके| पर स्मरण रहे यह जबाब देही जम्बूद्वीप की है , विश्व से अपेक्षा न करे । अपेक्षा सद्समाज , सद्व्यक्ति, सद्चरित्र से की जाती है  |धूर्त, कुटिल, अत्यधिक चतुर-चालाक , क्रूर , शोषक, तथा उत्पीड़क से नहीं की जाती है,जो आज का अमेरिका व यूरपो है |
         एक नई दृढ़ता, एकता, संकल्प के साथ सुख- शांति के वातावरण में एक नए विश्व को दिशा देने की चिरप्रतीक्षित बेला में एक जबाबदेही के साथ ......................
    वह जम्बूद्वीप ..........**यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा ! समुद्रे यस्य रसाभिदाहः  ! इमाश्च में प्रदिशो यस्यबाहू | कस्मैदेवाय हविषाविधेयं !
                              ***अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने |
                                   यतो हि कर्म्भूरेषा ह्यातोंया भोगभुमयाह |


सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।

नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)


Jamboodweep Social & Cultural Security 
जम्बूद्वीप सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुरक्षा


"Jamboodweep " --- "जम्बूद्वीप"
                    
     




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Saturday, 6 January 2018

एशिया का वॉटर टॉवर - चीन का जल उपनिवेश

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तिब्बत एशिया की प्रमुख नदियों का स्रोत हैं | ये नदियाँ हैं: सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलज, करनाली, अरुणकोशी. घघरा, मानस, दिबांग, लोहित, इरावदी, सालविन, मेकांग, यांगत्से तथा हुआंगहो | ये नदियाँ अंतर्राष्ट्रीय नदियाँ है | तिब्बत, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बंगलादेश, म्यांमार, थाललैंड, लॉस, कम्पुचिया, बियतनाम तथा चीन होकर बहती है | ये देश विश्व की घनी आबादी वाले उपजाऊ देश है | जहाँ आधी मानव जाति निवास करती है | ये नदियाँ एशिया के इन देशों की प्राणधाराएँ हैं | विश्व की 47 प्रतिशत जनसंख्या का ये नदियाँ भरण-पोषण करती है | ये नदियाँ एशिया के इन देशों की साझी विरासत है | (Comman Heritage) है चीन की बपौती नहीं |
ये नदियाँ Ecologically बहुत महत्वपूर्ण है | तिब्बत का पर्यावरण बहुत नाजुक है | तिब्बत के ECO system में कोई भी छेड़छाड़ होने से उसका दुष्परिणाम एशिया के सभी देशों को भोगना पड़ता है | चीन ने तिब्बत में जंगलों की अंधाधुंध कटाई करके, खनिज पदार्थों के लिए पर्यावरण का ध्यान न रखते हुये, अनियंत्रित खनन कर इन नदियों पर अनगिनत बांध बनाकर भूमि का over use, over grazing तथा गलत फसलें उपजाकर पर्यावरण की सोचनीय स्थिति पैदा कर दी है | इस कारण तिब्बत की नदियों के पानी को जंगलों के विनाश कर जल संग्रहण, जल को रोकने और थोड़ा-थोड़ा छोड़ने की क्षमता घटा दी है | इस कारण पर्यावरण तथा जल की कमी, भूक्षरण, सूखा, बाढ़, आदि की समस्याएँ बढ़ गई है और एशिया का वाटर टावर खत्म हो रहा है | पर्यावरण की कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं है |
Strange Geological Phehomeon
तिब्बत से निकलने वाली नदियों के दो मुख्य water shed है | एक उत्त्तर पश्चिम में कैलाश मानसरोवर का दूसरा उत्त्तर-पूर्व आमनेमाछेन पर्वत का | कैलाशमानसरोवर में भगवान शंकर तथा देवी पार्वती का निवास माना जाता है | हिंदु, बौद्ध, जैन कैलाश मानसरोवर खण्ड की तीर्थ यात्रा, प्रदक्षिणा करते हैं | इसी तरह आमदो के आमनेमाछेन में तिब्बती देवता माछेन पोमरा का निवास माना जाता है | तिब्बत के लोग उनको अपना शुभचिंतक देवता मानते हैं | वे आमनेमाछेन की तीर्थ यात्रा के लिये जाते हैं | उसकी परिक्रमा करते हैं |
कैलाश मानसरोवर खण्ड से सिंधु, ब्रह्पुत्र, सतलज तथा करनाली नदियाँ निकलती है | उनका उद्वगम स्थान पास-पास ही है | पर वे अलग अलग दिशाओं में बहती हैं | सिंधु पहले पश्चिम फिर दक्षिण दिशा में बहती है | ब्रह्मपुत्र कैलाश मानसरोवर के पहले पूर्व-दक्षिण तथा फिर दक्षिण पूर्व की ओर बह जाती है | सतलज तथा करनाली दक्षिण की ओर जाती हैं |
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हिमालय – कैलाश पर्वत
भारत के इतिहास में अतिप्राचीन काल से हिमालय के प्रति बहुत आदर, संभ्रम, विस्मय, गर्व तथा श्रद्धा का भाव रहा है | हिमालय भारत माता का हिम क्रीट है | भारत की कला, संस्कृति, साहित्य, जीवन पद्धति, धन-धान्य तथा उत्तरी भारत की प्रमुख नदियों का स्रोत है | हिमालय की सर्वदा हिमाच्छादित उत्त्तरी श्रृंखला – हिमाद्री – भारत की उत्त्तरी सीमा है | विष्णु पुराण में कहा गया है कि उतरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रिश्चैय दक्षिणम तद्वर्ष भारते नाम भारती यत्र संतति
महाकवि कालिदास के कुमार संभव का प्रथम श्लोक है |
अत्युत्ररस्यां दिशि हिमालयों नाम नगाधिराज | दिनकर जी ने हिमालय के प्रति लिखा है : मेरे नगपति मेरे विशाल, साकार दिव्य गौरव विराट, मेरी जननी के हिमक्रीट……
हिमालय की हिममंडित उत्तरी पर्वत श्रेणी को हिमाद्री कहते हैं | यही भारत की उत्त्तरी सीमा है | इसी हिमाद्रि में पवित्र कैलाश, पवित्र मानसरोवर है | कैलाश को अंग्रेजी में होली कैलाश तथा तिबब्ती में कांग रिम्पोछे कहते है | मानसरोवर को तिबब्ती में Tso Mapam कहते हैं | कैलाश मानसरोवर खण्ड हिन्दुओ, बौद्धों, जैनों के पवित्र तीर्थ स्थान है | कैलाश हिमाद्री की सबसे उत्त्तरी श्रृंखला के दक्षिणी Flank पर है | इसकी ऊँचाई समुद्र तट से 22, 281 फीट है | इसका घेरा 51.5 किलो मीटर है | इसके चतुर्दिक झेत्र से इसकी ऊँचाई 2133 मीटर है | पवित्र मानसरोवर कैलाश के आधार पर 18 मील दक्षिण है | मानसरोवर का घेरा 56 मील है | क्षेत्रफल 200 वर्ग मील है | गहराई 300 फीट है | कैलाश मानसरोवर का पूरा क्षेत्र कैलाश-मानस खण्ड कहलाता है | कैलाश मानस खण्ड का क्षेत्रफल 322 वर्ग किलो मीटर है | पूर्व से पश्चिम तक की लम्बाई 161 किलो मीटर है | कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर तथा भगवती पार्वती का निवास है | इसे श्रृष्टि का केंद्र भी कहा जाता है | यही पुराणों में वर्णित ब्रह्म सरोवर है – गन्धमादन आदि चार पर्वतों के बीच |
दशावतारों के पहले के 24 अवतारों में प्रथम अवतार भगवान ऋषभ देव जी ने यही तपस्या कर ज्ञान की प्राप्ति की थी | भगवान श्रीकृष्ण, भीम तथा अर्जुन भी यहाँ पधारे थे | भारत के संत महात्मा लोग यहाँ तपस्या के लिये आते रहे हैं | कैलाश मानसरोवर खण्ड की परिक्रमा तथा यात्रा हिंदु, बौद्ध तथा जैन सभी करते हैं | यह हिंदु धर्म का अविछिन्न अंग हैं | मानसरोवर को श्रृष्टिकर्ता ब्रह्मा का मानस कहा जाता है | मानस से 8 किलो मीटर दूर राकसताल है | रावण की तपस्यास्थली | राकसताल का घेरा 124 किलो मीटर, गहराई 150 फीट है | बौद्ध मानसरोवर को अवन्तक – Beyond heat and trouble मानते हैं |
कैलाश मानसरोवर खण्ड उत्तरी भारत की प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल है | यही से सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलज (शतदु – Fastes river of the World) है | करनाली का उद्गम यही है | कहते हैं कि गंगा जी का भी गुप्त उद्गम यही है |
यह अनोखी बात है कि उत्त्तर भारत की चार प्रमुख नदियों का उद्गम एक ही स्थान – कैलाश मानसरोवर की हिम नदियों से हुआ है और वे विभिन्न दिशाओं में बहती है | सिंधु उत्त्तर की ओर जाकर फिर पश्चिम की ओर, ब्रह्मपुत्र पूर्व की ओर जाकर फिर दक्षिण की ओर, सतलज दक्षिण की ओर जाकर फिर पश्चिम की ओर, करनाली दक्षिण की ओर | सिंधु का उद्गम स्थल 5183 मीटर पर, ब्रह्मपुत्र का 5,300 मीटर, सतलज का 5,200 मीटर | सतलज की लम्बाई 1448 किलो मीटर (900 मील) | पंजाब की पाँच नदियों में यह सबसे लम्बी नदी है |
पूर्वगामी ब्रह्मपुत्र में मानसरोवर तथा पे के बीच (1623 किलो मीटर) 14 नदियाँ उत्त्तर दिशा से आकर मिलती है | जिसमें प्रमुख है रोंगोछू, Key chhu, जियाम्बदा छू, तथा Po Tsango | ये नदियाँ पूरब बहने वाले शांको से 30 किलो मीटर उत्त्तर दिशा में जो हिमाद्रि श्रृंखला है – (Nenchentangla) जो मेन वाटरशेड है | वहीँ भारत के इतिहास पुराण के अनुसार भारत की उत्त्तरी सीमा है | कैलाश मानसरोवर खण्ड तथा पूर्वगामी ब्रह्मपुत्र के 30 किलो मीटर उत्त्तर तक का क्षेत्र भारत का भू-भाग है |
इसी तरह तीन महानदियाँ यांगत्से, मेंकांग, सालविन, आननेमाछेन क्षेत्र से निकलकर विभिन्न दिशाओं में बहती है | लेकिन तिब्बत के खाम प्रदेश तथा म्यांमार बोर्डर के निकट ये एक दूसरे के समानान्तर पांच डिग्री के अंतर पर बहते हैं | इनके (three riever) तीन समानांतर नदियों के पश्चिम अरुणाचल प्रदेश के सामने तीन बड़ी नदियाँ लोहित, दिवांग समानान्तर दक्षिण दिशा में अरुणाचल होकर असम में जाती है | लोहित तथा दिवांग के पश्चिम थोड़ी दूर पर अरुणाचल प्रदेश के सिंयाग जिले के सामने कैलाश से सीधा पूरब 1600 किलो मीटर आकर ब्रह्पुत्र अचानक दक्षिण की ओर मुड़ जाता है तथा लोहित और दिवांग के समानान्तर अरुणाचल होकर असम में चली जाती है तथा ये तीनों नदियाँ असम में सदिया के पास एकाकर होकर ब्रह्पुत्र के नाम से दक्षिण पश्चिम की ओर प्रस्थान करती है |
तिब्बतन वाटरशेड से निकलने वाली नदियों में एशिया की प्रमुख नदियाँ जैसे:- सिंधू (कुल लम्बाई-2900 किलो मीटर, जिसमें 800 किलो मीटर तिब्बत में है), सिंधू भारत की सात पवित्र नदियों-सप्त सिंधूओं में एक है | प्रातः स्मरणीय है | जिनका आह्वान स्नान के समय हम करते हैं | ‘गंगे च यमुने च गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिंधु, कावेरी जलेस्मन सन्निधं कुरु | इसके तट पर भारत की सभ्यता विकसित हुई | सिंधु पंजाब-सिंध (पाकिस्तान) के 80 प्रतिशत भाग को सींचती है | सिंध को सिंधु नदी का दान कहते हैं | सिंधु विश्व की उन दस नदियों में जिनका आगामी 20 वर्षो में सूख जाने की आशंका है | सिंधु बेसिन के 90 प्रतिशत वन काट डाले गये हैं | अब यहाँ केवल 0.4 प्रतिशत वन हैं | सिंधु बेसिन में चीन 60 मीटर से अधिक ऊँचाई के तीन डैम बना रहा है | सिंधु का तिब्बती नाम सिंगेखबाब है (सिंग मुखी) | ब्रह्मपुत्र (कुल लम्बाई-2897 किलो मीटर, जिसमें 1623 किलो मीटर तिब्बत में, कैलाश मानसरोवर के अपने उदगम से 1600 किलोमीटर तीर के तरह सीधा पूर्व की दिशा की ओर बहता हुआ यह हठात पे के पास दक्षिण की ओर मुड़कर एक तंग और गहरे Gorge में प्रवेश करता है। यह Gorge नामच्छा बरवा (25445 फीट ऊँचाई) ग्यालाफेरी (23450 फीट) पर्वत के बीच में है। यह विश्व का सबसे गहरा Gorge है। ब्रह्मपुत्र का यह मोड़ Great band कहलाता है । Tsangpo के Great band के पेमाको क्षेत्र से बहता हुआ कोरबो के पास भारतीय सीमा में अरुणाचल प्रदेश के सियांग जिला में प्रवेश करता है । कोरबो से लेकर अरुणाचल के Foothilsh पासी घाट तक गहरे Gorge से ही होकर गुजरता है । भारत की सीमा से पासी घाट तक जिस गौर्ज से यह गुजरता है उस गौर्ज की चौड़ाई 100 मीटर से लेकर 1000 मीटर तक है । भारत में प्रवेश करने के स्थान कोरबो से पासीघाट तक यह सियांग के नाम से जाना जाता है। सादिया में इसका मेल दिवांग तथा लोहित नदियों से होता है । यहाँ से इसका नाम ब्रह्मपुत्र हो जाता है।
असम में डिबुगढ़ के पास ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई 10 किलो मीटर है | यहाँ से यह दो धाराओं में बहतती है जोरहट के पास इन दो धाराओं के मध्य में 100 किलो मीटर लम्बा विश्व का सबसे बड़ा नदी द्विप मांजुली है | भारत सरकार ने इस अनूठे द्विप के संरक्षक के लिये प्रयास करने का आरंभ कर दिया है | असम की वैष्णव सभ्यता तथा संस्कृति का भंडार कोष है |
गुवाहाटी के पास सराईघाट में ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई 01 किलो मीटर है और एक ही धारा में बहती है | इसलिए ब्रह्मपुत्र में सबसे पहला रेल रोड पुल 1962 में सराईघाट में बना |
विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों ने असम में प्रवेश करने की कई बार असफल चेस्टाएँ की थी | चूंकि सराईघाट में ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई सबसे कम है इसलिए विदेश आक्रमणकारियों ने सराईघाट को ही असम में प्रवेश के लिये चुना | पर उनके (तुर्क अफगान, पठान) बार-बार के आक्रमण को असम के वीरबांकुरे हिन्दुओं ने विफल कर दिया। असम में अंतिम मुस्लिम आक्रमण औरंगजेब के समय 1671 में हुआ। विशाल मुगल सेना ने सरईघाट में ब्रह्मपुत्र को पार कर असम में तथा असम द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवेश करने की अनेक चेष्टाएँ की पर वे विफल हो गयी |
1671 में औरंगजेब की विशाल सेना ने असम पर आक्रमण की पर वे ब्रह्मपुत्र को पार करने में मुगल सेना सफल नहीं हुई | 1671 की सराईघाट की लड़ाई इतिहास में प्रसिद्ध है | यही असम के लोगों ने लाक्षितबरफुकन के नेतृत्व में मुगल सेना को छापामार युद्ध में बुरी तरह पराजित किया | लक्षितबरफुकन की तुलना वीर शिवाजी से की जाती है। सराईघाट की पराजय के बाद मुसलमानों ने असम की तरफ रुख करना छोड़ दिया और इस्लाम का प्रचार असम, वर्मा, लॉस, कम्पुचिया, थाईलैंड तथा वियतनाम में नहीं हो पाया |
यदि मुगल सेना 1671 में असम तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवेश करने में सफल हो गयी होती तो असम तथा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों का वहीँ हस्र होता, जो इण्डोनेशिया का हुआ | इण्डोनेशिया जो सैकड़ों वर्षों तक हिन्दू / बौद्ध देश था। फिर बाद में मुस्लिम आक्रमण के कारण मुसलमान हो गया | उनका बलात धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बना दिया गया | आज इण्डोनेशिया की 86 प्रतिशत आबादी मुसलमान है और 09 प्रतिशत इसाई है तथा शेष 05 प्रतिशत हिन्दू तथा बौद्ध हैं | हिंदु संस्कृति का प्रभाव इण्डोनेशिया में अभी भी स्पष्ट है | इण्डोनेशिया का बाली द्विप हिंदु है | इण्डोनेशिया की भाषा Bahasa इण्डोनेशिया तथा मलाया की भाषा संस्कृत से प्रभावित है | मुस्लिम इण्डोनेशिया में रामायण एवं महाभारत का अभी भी बहुत प्रभाव है | इण्डोनेशिया के भूतपूर्व राष्ट्रपति सुकरणो का कहना था कि 2000 वर्ष पहले भारत के लोग इण्डोनेशिया आये। जो उस समय यवद्विप तथा स्वर्णद्विप कहलाता था तथा वहाँ शक्तिशाली हिंदु राज्य स्थापित किये | इन हिदु राज्यों के नाम थे – श्रीविजय, माताराम तथा महामजापहित |
ब्रह्मपुत्र 278 अरुणाचल में तथा 640 किलो मीटर असम में, 354 किलो मीटर बंगला देश में इसका तिब्बती नाम यारलुंग सांगपो, यामचोक खबाब | त्सांगपो का अर्थ – Purifir – पवित्र करने वाला है | ये तिब्बत, भूटान तथा आसम में पवित्र महानदी माना जाता है | ब्रह्मपुत्र तिब्बत को दक्षिणी एशिया से जोड़ता है | यह तिब्बती सभ्यता का पालना (Cradle) कहा जाता है | यह विश्व की सबसे ऊँचे धरातल (13 हज़ार फ़ीट की ऊँचाई) पर बहने वाली नदी है । इसी की धारा पर चीन Great Band में अति ख़तरनाक मानवता के नाश का एक भयंकर राक्षस के प्रतिरोपण बाँध बनाकर डैम का निर्माण कर चुका है।
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सालविन
सालविन की कुल लम्बाई है 2800 किलो मीटर जिसका 1000 किलो मीटर तिब्बत में है | इसका तिब्बती नाम ग्यामो डुल छू, चीनी नाम है नू जियांग | तिब्बत के नागछू के पास ही कुछ झीलें है | यह सेंट्रल तिब्बत खाम, वर्मा, पश्चिमी थाईलैंड होकर बहती है | यह मेकांग के समानान्तर बहती है | यहाँ एक प्राकृतिक अजूबा करिश्मा देखनों को मिलता है | एशिया के तीन महान नदियाँ यांग्तसे, सालविन तथा मेकांग एक दूसरे के बहुत निकट से अलग-अलग गौर्जो में समानान्तर बहती है | इन समानान्तर नदियों के गौर्ज को यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरीटेज साईट घोषित किया गया है | प्राकृतिक के रत्न | इसके बावजूद चीन की सरकार हेरीटेज साईट के निकट व्यवसायी गतिविधियाँ चला रही है | खनिज पदार्थो का खनन कर रही है | बांध बना रही है जिससे वर्ल्ड हेरीटेज खतरे में पड़ गया है | यूनेस्को ने चीन की सरकार से वर्ल्ड हेरीटेज के आस पास अवांछित कार्यवाई नहीं करने का अनुरोध किया था | पर चीन की सरकार ने यूनेस्को की आपत्ति की कोई परवाह नहीं की | चीन अपने दम्भ में किसी का परवाह नहीं करता | चाहे वह एशिया के पड़ोसी देश हो या यूनेस्को हो | वह अपनी दादागिरि चलाता रहता है |
मेकांग
मेकांग का तिब्बती नाम है ‘जा छू’ तथा चीनी नाम ‘चांग जियांग’ इसकी लम्बाई 4500 किलो मीटर है। जिसमें 1500 किलो मीटर तिब्बत में है | यह तिब्बत की नदियों में सबसे अधिक अन्तर्राष्ट्रीय नदी है | छः देंशो से होकर बहती है | यह देश है :- तिब्बत, चीन (ह्यूनान) लाओस, वर्मा, थाईलैंड, कंपूचिया तथा वियतनाम | मेकांग में बड़े जहाजों के आवागमन की सुविधा के लिये चीन ने मेंकांग के पेट में जहाँ–तहाँ जो बड़ी बड़ी चट्टानें थी, उनको बम से उड़ाकर नदी को बड़े जहाजों के आवागमन के लिये योग्य बनाया | इस नदी की जीव विभिन्नता (Bio-Diversity) की अपूरणीय क्षति हुई |
इस नदी पर चीन ने 30 डैम बनाये है और 14 से अधिक बांधो का कैशकेड डैम भी बनाया है | लॉस आदि देशों ने इन बांधों के बनने से उनको होने वाले नुकसान के कारण चीन से अपनी चिंता जाहिर की थी, पर चीन ने कोई परवाह नहीं की | अपना निर्माण जारी रखा | चीन के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने भी चीनी सरकार से अनुरोध किया था कि वह मेकांग के पर्यावरण तथा जैव विभिन्नता (Bio-diversity) की रक्षा करें पर उनका अनुरोध निष्फल हुआ |
मेंकांग को साउथ इस्ट एशिया का हृदय कहते है | यहाँ 60 मिलियन लोग रहते हैं जो मेकांग पर खाद्य पदार्थ, जल तथा आवागमन के लिये निर्भर हैं | मेकांग में मछलियों की जितनी प्रजातियाँ पायी जाती है वह उतनी आमेजन नदी के अलावा विश्व की किसी और नदी में नहीं पाई जाती है | यहाँ छोटी से छोटी मछली से लेकर 300 किलो ग्राम तक मछली, 14 फीट डायना वाली मछलियाँ भी पाई जाती है | इसलिये मेकांग को थाईलैंड में माईखंग कहते हैं | माई का अर्थ हुआ थाई भाषा माँ होता है तथा खंग गंग का अपभ्रंस हैं | इस प्रकार माईखंग का अर्थ हुआ माँ गंगे |
चीन द्वारा मेकांग नदी पर दक्षिण – पश्चिम ह्यूनान प्रान्त में अंधाधुंध बाँध बनाने से चीन के पड़ोसी देशों में भयंकर भय व्याप्त हो गया है | थाईलैंड, लॉस, वियतनाम तथा कम्पुचिया देशों ने 04 अप्रैल 2010 को चीनी सरकार से अपनी चिंता अवगत कराने का निश्चय किया है |
इन चार देशों ने 1995 में मेकांग River commission (MRC) बनाया । MRC का निर्माण Joint Management के लिये किया गया था | पर चीन इसमें शामिल नहीं हुआ | जैसे MRC देशों की चिंता है वैसी ही चिंता विगत वर्षो में भारत ने भी चीन से जाहिर की थी कि Yarlong TSangpo पर चीन द्वारा अनेक बांधो के निर्माण का दुष्प्रभाव भारत पर भी पड़ रहा है तथा और भी पड़ेगा | पर चूँकि इन नदियों के उपरी हिस्सों पर चीन का कब्जा है इसलिये चीन इन नदियों के निचले भागों वाले देशों की चिंता की परवाह नहीं करता है | इस मामले में अन्तर्राष्ट्रीय कानून भी लचर है |
थाईलैंड के प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से मार्च 2010 कहा था कि मैं अपने विदेश मंत्री से इस संदर्भ में चीन से बात करने के लिये कहूँगा क्योंकि चीन की दादागीरी से मेकांग के बेसिन में रहने वाले छ: करोड़ लोग दुष्प्रभावित है | चीन ने 2011 तक मेकांग पर चार बांध बना लिये थे तथा पाँच और निर्माणाधीन थे जिसे अबतक शायद पूर्ण भी कर लिया हो | उनमें से एक Xiowan Dam है जो विश्व का सबसे (292 मीटर ऊँचा) ‘ऊँचा’ डैम है | इस बांध पर चीन ने चार Billian अमेरिकी डॉलर खर्च किया है |
United Nations Environment programme ने इस संदर्भ में चेतावनी डी है कि इन बाँधों से निचले देशों के जल प्रबंधन तथा सुरक्षा को खतरा है |
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Xiowan Dam
यांगत्से
यांगत्से का चीनी नाम है चांग झियांग तथा तिब्बती नाम ड्रिछू है | यह विश्व की तीसरी सबसे लम्बी नदी है | इसकी कुल लम्बाई-6380 किलो मीटर है | उदगम स्थान तिब्बत के आमदो प्रदेश का थांगला पर्वत श्रृंखला जिसकी ऊँचाई 4900 मीटर है | यह अपने उदगम स्थान से पूर्व, दक्षिण-पूर्व फिर दक्षिण चीन के यूनान के आमदो तथा खाम में आ जाती है | वहाँ से फिर दक्षिण-पश्चिम जाकर चीन के सिंचुआन प्रान्त में प्रवेश करती है | वहाँ से वह वह शंघाई होते हुये पूर्वी चीन सागर में मिल जाती है | यह 1.8 विलियन वर्ग किलो मीटर भूमि को सींचती है | यह भी विश्व की उन दस नदियों में है जिनका अस्तित्व खतरे में है | यांगत्से इलाके में सालविन, मेकांग ब्रह्मपुत्र तथा Tsangpo के Catchment की तरह तिब्बत में बड़े प्राचीन घने जंगल थे | इन जंगलों के वृक्ष दो-ढाई सौ साल पुराने थे | इन जंगलों की अंधाधुंध कटाई कर चीन ने इस नदियों का सत्यानाश कर दिया है | इससे बाढ़, सिलटेशन तथा प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है | जिसका प्रभाव नीचे वाले देशों तथा चीन पर भी पड़ रहा है |
हुआंगहो
हुआंगहो तिब्बत से ही निकलती है तथा दक्षिणी पूर्व एशिया तथा चीन को सींचती है | चीनी भाषा में हुआंगहो तथा तिब्बती भाषा में इसका नाम है ‘माछू’ | अंग्रेजी में इसे Yello river भी कहते हैं, क्योंकि इसके पानी में पीली मिट्टी घुलकर आता है जिससे पानी का रंग पीला रहता है | इसकी लम्बाई 5,461 किलो मीटर है | जिसमें 1100 किलो मीटर तिब्बत में है | इसका उदगम स्थान आमनेंमाछेन ग्लेशियर तिब्बत के आमदो प्रान्त में है | इस नदी में विश्व की सभी नदियों से अधिक सिल्ट आता है | अपने हाई सिल्ट लोड के कारण यह पावर जेनेरेशन के लिये अनुपयुक्त है | यह अत्यधिक प्रदूषित नदी है | चीन की 80 प्रतिशत नदिया बुरी तरह से प्रदूषित हैं | यह कोशी की तरह मनमौजी है | इसलिए इसको चीन का शोक भी कहते हैं | चीन की सभ्यता इसी नदी के तट पर विकसित हुई | इसके बेसिन में 20 करोड़ लोग निवास करते हैं | ये चीन का Bread Basket कहलाता है, लेकिन इस नदी के कारण बाढ़ से भी बहुत नुकसान होता है | यह चीन का वरदान भी है और अभिशाप भी है | इस नदी की 1931 की बाढ़ में चालीस लाख लोग मरे थे | चीनी लोग इस नदी को माँ के समान मानते हैं | इसके अपर बेसिन में बहुत सारे पनबिजली बाँध बनाये गये हैं | जहाँ पेट्रो केमिकल्स, एलमुनियम के कारखाने हैं | सन 2004 में इसकी उपरी हिस्से में 4.5 छोटे डैम और 12 बड़े डैम बनाये गये | जो 2010 में पूरे हो गये | बड़े बांधों से पर्यावरण की भी समस्याएँ खड़ी हो गई है | चीन की नेताओं की प्राथमिकता बड़े बांध बनाने की है | जो उनका नाम इतिहास में दर्ज करवायेंगे |
2007 में एक सर्वे में पाया गया कि पीली नदी का पानी न पीने योग्य है और ना मछलियों के रहने योग्य है और न ही खेती और उद्योग के लिये है | इस नदी के बेसिन में भूगर्भ जल का अत्यधिक उपयोग होता है | जिस कारण भूगर्भ जल का स्तर आधा मिल नीचे चला गया है और हर साल डेढ़ मीटर नीचे चला जाता है | बीजिंग में एक तिहाई कुएँ सूखे गये हैं | भूगर्भ जल के अत्यधिक उपयोग के कारण | इसलिए इस समस्या से निपटने के लिये चीन के नेताओं ने यह निश्चय किया है कि इस नदी का जल संकट राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) का विषय है,जिसका अविलम्ब समाधान आवश्यक है | इसी समस्या के समाधान के लिये चीन के शीर्ष नेताओं और चीन के नेतृत्व ने यह निर्णय लिया कि ब्रह्मपुत्र का पानी लाकर पीली नदी में मिलाया जाय जिससे उत्त्तरी चीन का जाल संकट दूर हो | भूगर्भ जल का जलस्तर उपर उठे तथा Yello River प्रदूषण मुक्त हो सके |
लेकिन अध्ययन के बाद पाया गया कि केवल ब्रह्मपुत्र का पानी इस समस्या से निबटने के लिये पर्याप्त नहीं होगा | इसलिये निश्चय किया गया कि ब्रह्मपुत्र के साथ ही साथ यांग्त्से, सालविन तथा मेकांग के पानी को भी एकत्र कर नहरों द्वारा Yellow River में मिलाया जाय जिससे ने केवल उत्त्तरी चीन की जाल समस्या का समाधान होगा बल्कि इनरमंगोलिया, मंचूरिया, सिंकियांग, जुंगर बेसिन, छपदहगपं जैसे शुष्क रेगिस्तान इलाकों को भी हरा भरा किया जा सकेगा | ये शुष्क इलाके औद्योगिक दृष्टी से चीन के लिये बहुत महत्वपूर्ण है |
पर आज चीन की चोरी और सीनाज़ोरी से एशिया की साँझी नदियों का पानी लूट की साज़िश का शिकार बन गया है और एशिया के वॉटर टावर को चीन अपना जल उपनिवेश बना लिया है।
तिब्बत से निकली नदियाँ
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Thursday, 14 December 2017

“गीता” : एक ‘मानवीय ग्रंथ’ … एक ‘समग्र जीवन दर्शन’ … व ‘मानव समाज की अप्रतिम धरोहर’

           


"गीता” का शाब्दिक अर्थ केवल गीत अर्थात् जो गाया जा सके से लिया जाता है । किन्तु आतंरिक रूप से इसका अर्थ है कि जिसने अपने गीत को पा लिया है, स्वयं के छन्द को जान लिया है, स्वच्छंद हो गया है । माना जाता है कि पूर्व अध्यात्म की यात्रा पर ध्यान केन्द्रित करता है और पश्चिम विज्ञान की । किन्तु सत्यता इससे भी गूढ़ है । गीता के द्वारा मनुष्य अध्यात्म और विज्ञान, दोनों ही की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है ।

‘गीता’ किसी विशेष धर्म या संप्रदाय की पुस्तक नहीं है ।अपितु यह एक एक जीवंत ग्रन्थ है। जिसका दृष्टिकोण विश्चजनीन है| ज्ञान-यज्ञ का यह ग्रन्थ मानव-मात्र के हित के लक्ष्य से प्रेरित है। आज ‘योग’ जिस तरह पतंजलि के सूत्रों के कारण,भारत और हिन्दू धर्म की परिधि में सीमित न रहकर सम्पूर्ण संसार में ग्राह्य हो गया है, उसी तरह ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ भी अपने देश-काल को लाँघकर सम्पूर्ण विश्व की वैचारिक संपत्ति बन गई है । अध्यात्म और कर्म अथवा निवृत्ति एवम् प्रवृत्ति के द्वंद को समाहित करनेवाली यह कृति मानव-जीवन की चरितार्थता की खोज करती है । चतुर्दिक व्याप्त संघर्ष और दिग्भ्रम के वातावरण में इसकी उपयोगिता एक औषधि की तरह है।
महाभारत के अंत में एक विशेष प्रसंग आता है जहाँ अर्जुन कृष्ण से पुनः गीता सुनाने को कहते हैं, क्योंकि जो ज्ञान दिया गया था, अर्जुन को उसकी विस्मृति हो गई थी । तब कृष्ण कहते हैं-
‘‘न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमषेशत: ।
परं हि ब्रह्म कथितं योग युक्तेन तन्मया ॥
(महा/अश्‍वमेधिकपर्व/अनुगीता/अध्याय १६)
अर्थात् वह उपदेश, उसी रूप में दोहराना मेरे वश में नहीं; क्योंकि उस समय, योगयुक्त होकर मैंने उस ब्रह्मविद्या का वर्णन किया था|
इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि गीता का सम्पूर्ण ज्ञान ध्यान की उच्च अवस्था में प्रदान किया गया था । अतः ध्यान के द्वारा प्राप्त गीता का ज्ञान मानव कल्याण के लिए ही उत्पन्न हुआ है ।

कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में विषादग्रस्त अर्जुन को मोह और अवसाद से मुक्त किया था। आज भी ‘महाभारत’ चल रहा है । लोग किंकर्तव्य विमूढ़ हैं । वे कर्म और उद्देश्य से कटकर निरर्थक विचारों के ऊहापोह में डूब गए हैं । ऐसे संशयग्रस्त समय में ‘गीता’ मार्गदर्शिका के रूप में सामने है । अनिर्णय में झूलनेवाले का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है । मानसिक दृष्टि से टूटे हुए लोग समाज, देश और संसार का कल्याण नहीं कर सकते हैं । ‘गीता’ उन भग्नचित व्यक्तियों का उपचार करने में समर्थ है।

‘महाभारत’ का ‘अन्धायुग’ अभी समाप्त नहीं हुआ है । सत्तासीन जन धृतराष्ट्र की तरह बेचारे हैं।वे केवल निष्क्रिय बुद्धिजीवी संजय से ‘कुरुक्षेत्र’ की कथा पूछते हैं।नारी-शक्ति के नेत्रों पर गांधारी की पट्टी बँधी हुई है।अनेक झंडे उड़ रहे हैं।वाहनों की विपुलता है।विविध शंखध्वनियाँ गूँज रही हैं।गांडीव का गौरव गल रहा है।अर्जुन अवसन्न है। द्वापर का यह दृश्य सर्वत्र देखा जा सकता है।मनुष्यता को मार्ग नहीं मिल रहा है।ऐसी स्थिति में ‘गीता’ के संदेशों की प्रासंगिकता सभी देशों में अनुभूत ही रही है।

‘गीता’ आकारतः छोटी पुस्तक है, किन्तु उसकी लपेट में सम्पूर्ण त्रिलोक और त्रिकाल है। जिस तरह कृष्ण की विभूतियॉं सर्वत्र फैली हुई हैं और उनके विराट रूप में सब-कुछ समाविष्ट है उसी तरह ‘गीता’ विविध विचारों के बीच संतुलन के उस सेतु की प्रतीति कराती है, जिस पर सभी रंगों, नस्लों, और राष्ट्रों के लोंगों को चलने की स्वतंत्रता है।

‘गीता’ जहाँ एक ओर काव्य प्रतीत होती है वहीँ दूसरी ओर समाज के यथार्थ को संबोधित भी करती है | सभी के प्रश्नों की उत्तर-कुंजिका है यह । प्रश्न चाहे निजी हो, सत्ता का हो, विज्ञान का हो, आधुनिकता का हो, श्रद्धा व विशवास का हो अथवा अध्यात्म के रस से परिपूर्ण हो- उत्तर गीता में दृष्टव्य है । इसी कारण से यह ग्रन्थ किसी कवि के द्वारा लिखी गई निजी संपत्ति नहीं है अपितु मानव सभ्यता की सम्पति होती है । जिस तरह शेक्सपियर केवल इंगलैण्ड के नहीं हैं और तुलसीदास पर हिन्दी का ही हक़ नहीं है उसी तरह ‘व्यास’ एवम् ‘गीता’ को हम केवल संस्कृत तथा भारत से जोड़ने का अपराध नहीं कर सकते हैं । विश्व की साझी विरासत के रूप में ‘गीता’ की महत्ता अक्षुण्ण है । अध्यात्म के फलक पर लोक-शिक्षण की इस रचना में उपनिषदों का पोषक दुग्ध संचित है । इस वैचारिक आहार पर हिन्दू,जैन,बौद्ध, यहूदी, मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि सभी समुदायों का अधिकार है।इसका काव्यत्व सबके लिए आधारक और तोषप्रद है। निश्चय ही पूरी मानवता इससे प्रेरणा ले सकती है।

अल्प शब्दों में कहें तो ‘गीता’ एक “मानवीय-ग्रन्थ” है और एक सार्वजनीन “समग्र मानवीय जीवन-दर्शन” भी है।

यद्यपि “गीता” की व्यापकता, प्रभाव व संस्कार मानव जीवन में असीमित व अनन्त है ।”गीता” की सार्वभौमिकता व सर्वव्याप्तता को ध्यान में रख आज एक सीमित परिचर्चा निम्नांकित विषयों पर की जा सकती है।
राष्ट्रिय / सामाजिक / वैयक्तिक जीवन के विभिन्न पहलुओ पर चंद निम्न श्लोक पूर्ण मार्ग दर्शन करते है जो हर स्तर के प्रबंधन की सम्पूर्ण कुंजी है.
Geeta is a management gospel covering every aspect of life, be it national level, society level or individual level. It gives the direction to handle various aspects of life and provides guidelines for every individual in respect of his duties and rights.

1. Good Governance and social setup
सुसाषन वैयक्तिक लक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था – गीता श्लोक 3.21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥

2 . Duties of state towards law and order for the benefit of society
समाज विधायक निति और उसका उद्देश्य
गीता श्लोक 4.8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

3 . Self-development and its role in social order
नागरिक जीवन का चरमोत्कर्ष एवं सामाजिक व्यवस्था में उसका योगदान – गीता 6.5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥

4. Doctrine of right to act and concept of freewill
स्वतन्त्र समाज में वैयक्तिक अधिकार – गीता 2.47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२- ४७॥
5. Philosophy of detachment in life as attachment leads to unrest
तृष्णा एवं लालसा से सामाजिक अव्यवस्था व असहिष्णुता का जन्म – गीता 2.62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥
6.– Fallacy in change of religion – clear guideline
धर्मं परिवर्तन एक अनावश्यक व अवनति का मार्ग – गीता 3.35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥

7. Law of co-existence and concept of brotherhood – Live and let live
वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत – गीता 6. 30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥

8. No place for ill will in society
भारतीय सामाजिक व्यवस्था ईर्ष्या व द्वेष का स्थान नहीं – गीता 5.3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥

9. Ideal living order for individuals
आदर्श जीवन व्यवस्था – गीता 2.38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥

आई आई एम से लेकर दूसरे मैनेजमेंट स्कूल्स तक में गीता को प्रबंधन की किताब के रुप में पहचान मिली है। गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं और जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा रही है। कुरुक्षेत्र में युद्ध के मुहाने पर खड़ी कौरवों और पांडवों की सेना के बीच भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया वो गीता माना गया है।
आखिर गीता में ऐसा क्या है जो उसे इतना पढ़ा जाता है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के सामने आती है। आज हम आपको गीता के कुछ चुनिंदा प्रबंधन सूत्रों से रू-ब-रू होते हैं-

श्लोक-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र – धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

श्लोक-
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।
मैनेजमेंट सूत्र – हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो, इसके लिए वह भटकता रहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना ( आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्त होगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

श्लोक-
विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।
मैनेजमेंट सूत्र – यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

श्लोक-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।
मैनेजमेंट सूत्र – बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे, तो ये हमारी मूर्खता है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रुप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी। और उसका परिणाम भी मिलेगा ही। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

श्लोक-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
मैनेजमेंट सूत्र- श्रीकृष्ण अर्जुन को माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना। जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए।

श्लोक-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र- यहां भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी की नकल करेंगे। जो कार्य श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन उसी को अपना आदर्श मानेंगे। उदाहरण के तौर पर अगर किसी संस्थान में उच्च अधिकार पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां के दूसरे कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे।

श्लोक-
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।
मैनेजमेंट सूत्र – ये प्रतिस्पर्धा का दौर है, यहां हर कोई आगे निकलना चाहता है। ऐसे में अक्सर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर लोग अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं या काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भर देते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है। संस्थान में उसी का भविष्य सबसे ज्यादा उज्जवल भी होता है।

श्लोक-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र- इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं। उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए भगवान ने उसे मृत्यु प्रदान की। हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए जिस रुप में हम उसे पाना चाहते हैं।

श्लोक-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
मैनेजमेंट सूत्र- भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकार अपना काम करते रहो। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।

19/11/2015
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Thursday, 9 November 2017

हाइफा मुक्ति - आनंद कुमार, पटना

हमारा इतिहास लिखने वाले लुगदी उपन्यासकारों ने चूँकि कई तथ्य पहले ही छुपा रखे हैं इसलिए भारतीय सेना के कारनामे को छुपाना भी आसान हो गया | पहले विश्व युद्ध के दौरान कई भारतीय सिपाही भी लड़े थे और उनका इतिहास नागरिकों को कभी आजादी के बाद बताया ही नहीं गया | इसी वजह से लोगों को ये नहीं पता है कि इसराइली हैफा(Haifa) शहर को इस्लामिक ऑट्टोमन खलीफा के चंगुल से छुड़ाने वाले सैनिक भारतीय घुड़सवार थे |

फिफ्टीन्थ इम्पीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड के सैनिक 1918 में इसराइल के हैफा शहर को छुड़ाने के लिए लड़े थे | इनमें से कई वहीँ वीरगति को प्राप्त हुए और करीब 900 को वहीँ दफनाया गया है | सौ साल पहले हुई इस लड़ाई में 400 साल की इस्लामिक हुकूमत से हैफा को छुटकारा मिल गया, वो तुर्की हुक्मरानों से आजाद हुआ | हर साल 23 सितम्बर को भारत और इसराइल दोनों में हैफा दिवस मनाया जाता है | मुझे पता नहीं कि भारत में कितने लोगों ने कभी हैफा दिवस का नाम सुना होगा |

इसलिए हम वहां आ जाते हैं जो आपका सुना, आपके लिए जाना पहचाना है | आपने तीन मूर्ती भवन का नाम शायद सुना होगा | पहले प्रधानमंत्री नेहरु का आवास होने के कारण, और अब संग्रहालय और पुस्तकालय होने के कारण ये प्रसिद्ध है | वहां से गुजरती सड़क भी इसी नाम से जानी जाती है | सन 1924 में यहाँ उस तीन मूर्ती का अनावरण हुआ था, जिन तीन मूर्तियों के कारण इसका नाम पड़ा | ग़लतफ़हमी में कुछ लोग “तीन मूर्ती” कहने पर गाँधी जी के तीन बन्दर समझ लेते हैं |

पीतल की बनी ये तीन मूर्तियाँ हैदराबाद, जोधपुर और मैसूर रियासतों के घुड़सवार सैनिकों का प्रतीक हैं जो मिलकर पंद्रहवीं इम्पीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड के रूप में लादे थे | बाद में जब भारत आजाद हुआ तो ये 61वीं कैवलरी नाम से जाने जाने लगे | आज 61वीं कैवलरी दुनिया की इकलौती काम करती घुड़सवार सैन्य टुकड़ी है | जब 8 मार्च, 1924 को वाइसरॉय रीडिंग के समय इस प्रतिमा का अनावरण हुआ था तो इसकी सुरक्षा में 19 किंग जॉर्ज फिफ्थ ओन लैंसर्स तैनात था और गार्ड ऑफ़ ऑनर 2/13 फ्रंटियर फोर्सेज रायफल्स ने दी थी | ये दोनों बंटवारे में पाकिस्तान को दे दिए गए |

ये स्टाम्प की तस्वीर इन्टरनेट से जुटाई है, मेरे पास ये फिलहाल नहीं, क्योंकि कोई परिचित फिलहाल इसराइल में नहीं है | भारतीय डाक ने कभी इन घुड़सवार सैनिकों पर कोई डाक टिकट निकाले हों ऐसा याद नहीं आता | अगले साल भारतीय सैनिकों के इसराइल के हैफा में दर्ज करवाए इस कारनामे को सौ साल हो जायेंगे | सवाल ये है कि क्या भारत भी अपने सैनिकों को याद करेगा ?
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Friday, 26 May 2017

India, Japan come up with AAGCThe, AAGC initiative is part of Indo-Pacific freedom corridor


India, Japan come up with AAGC

The AAGC initiative is part of Indo-Pacific freedom corridor
Prime Minister Modi at the opening ceremony of 52nd African Development Bank's annual meeting in Gandhinagar.
Resource- ET
India on Thursday launched a vision document for Asia-Africa Growth Corridor (AAGC) at the ongoing African Development Bank meeting in Gujarat. The initiative, which comes amid project to connect Asia with Africa, is a joint vision of Prime Minister Narendra Modi and his Japanese counterpart Shinzo Abe. It aims for Indo-Japanese collaboration to develop quality infrastructure in Africa, complemented by digital connectivity. 

The AAGC, based on India’s decades old goodwill in Africa and Japan’s financial resources, aims to be an efficient and sustainable mechanism for linking economies, industries and institutions, ideas and people among, and between, Africa and Asia in an inclusive fashion. There is still vast and untapped potential among, and in between, Asia and Africa, which needs to be explored for shared growth, development, peace, prosperity and stability of these regions, officials said. 

“The AAGC would consist of four main components: development and cooperation projects, quality infrastructure and institutional connectivity, capacity and skill enhancement and people-to-people partnerships. These four components are complementary to promote growth and all round development in both the continents,” the document said. The meeting in Gujarat was attended by two presidents and one vice president from Africa. 

The AAGC initiative is part of Indo-Pacific freedom corridor being put in place by India and Japan with an eye on counterbalancing China’s OBOR

Digital connectivity will also support the growth of innovative technology and services between Asia and Africa. There is scope for Asia to share its experiences of growth and development with Africa, according to persons involved in the project. Quality infrastructure connects people, towns, regions and countries, and helps unleash their potential for growth. It consists of five remarkable aspe

These aspects are: (a) effective mobilisation of financial resources; (b) their alignment with socio-economic development and development strategies of partner countries and regions; (c) application of high-quality standards in terms of compliance with international standards established to mitigate environmental and social impact; (d) provision of quality of infrastructure taking into account aspects of economic efficiency and durability, inclusiveness, safety and disaster-resilience, sustainability as well as convenience and amenities; and (e) contribution to the local society and economy,” the document said. 

The quality infrastructure as envisaged by the AAGC “would remain in harmony with the local environment, community, and people’s livelihoods”. China has often been accused, particularly in Africa, of imposing and executing projects ignoring local sentiments. 

India has a long history of development cooperation in Africa in capacity building and contributing towards development of social sector through several unique programmes such as Pan Africa e-Network. Indian companies have sustainable presence in the African region. The EXIM Bank is the lead organisation for carrying out the development credit tasks. India has a distinction in providing affordable, appropriate and adaptable technology. It is also working in project execution and in building technical capacities in many developing countries, officials said.
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Wednesday, 24 May 2017

Himalaya - Hind Mahasagar Periphery States, Freedom Corridor

Himalaya - Hind Mahasagar Periphery States, Freedom Corridor
One of India’s still-evolving responses of any tangible nature is to partner with Japan on “multiple infrastructure projects across Africa, Iran, Sri Lanka, and Southeast Asia in funding infrastructure and capacity building projects” as part of a “Freedom Corridor” that stretches from the Asia-Pacific to Africa. That is both ad hoc and indistinguishable from OBOR and, unfortunately, will be perceived as such. China’s global thrust has been visible for some years (in Central Asia, Africa and South America), and the formal inauguration of OBOR should not have come as a surprise. If India does have a response, it should have been planned all along and not be suddenly brought to the table as a “me too”.
A better alternative is to let imagery guide strategy and policy – one that evokes a true partnership of nations, not a presumptive superpower dictating the terms of engagement, and an articulation of how this partnership would work in practice.
Now take a look at the image below. What I find particularly fascinating is that the whole Indian Ocean may be conceptualised with a clock metaphor: imagine you are located smack-dab in the middle of the ocean somewhere to the east and north of Mauritius. Straight up north, at 12 O’clock, are India and Sri Lanka; at 1 O’clock are our neighbours Nepal, Bhutan and Bangladesh; from 2 O’clock through 5 O’clock are Burma, Thailand, Malaysia, Singapore, Indonesia (the ASEAN members) and Australia; and at all points from 7 O’clock to 10 O’clock are the nations on the east coast of Africa from Mauritius and Madagascar to South Africa and thence through Mozambique, Tanzania, to Kenya; the Middle East, Iran and Afghanistan at 11 O’clock (ignoring Pakistan). That is to say, this is the Indian Ocean sphere that should be India’s main focus to work out a cooperative international political and economic pact that represents a win-win for all countries involved. It’s a huge space comprising a range of nations with different needs, resources, capabilities and expectations.

The phrase “blue ocean strategy” traces to a book of the same name by two Insead faculty, W Chan Kim and Renee Mauborgne. The basic thesis of their work is that the focus of a majority of research on “strategic thinking has been on competition-based red ocean strategies”. They write that this has been the case because corporate strategy has been heavily influenced by its roots in military strategy. Significantly, they add that in such a perspective, “strategy is about confronting an opponent and fighting over a given piece of land that is both limited and constant”.

India and Japan would be better off imagining, defining, articulating and executing a blue ocean strategy that dismisses China as competition and look to innovate in their foreign economic policy. The Indian Ocean, with its clock metaphor, would be a good place to start. The authors of the Blue Ocean Strategy note that the cornerstone of such a strategy is the practice of “value innovation”, whereby, instead of seeking to beat the competition, “you focus on making the competition irrelevant by creating a leap in value for buyers and your company, thereby opening up new and uncontested market space”.
Such a perspective would allow India and Japan to think of the Indian Ocean clock in two halves – the eastern Indian Ocean (12 O’clock to 5 O’clock) and the western Indian Ocean (7 O’clock to 11 O’clock). As my previous article (‘One Belt One Road: How India Can More Than Match China’s Grand Design’) argued, India would need to quickly involve and collaborate with its immediate neighbours – minus Pakistan – to create a South Asian Union that integrates completely with the Indian common market. If we put our minds to it, demonstrate largeness of heart, and offer our neighbours broad-based access to our markets, the SAU could be a reality within five years.
This complete, the SAU members would then have to work assiduously to integrate with the Association of South East Asian Nations (ASEAN). All of this, ideally, should happen in a spirit of generosity and welfare for all where India would need to take leadership and open its markets to neighbours for both products and services. Remember: Lee Kuan Yew of Singapore did invite India to become a founding member of ASEAN. As in numerous other occasions, we passed this over and have regretted it ever since. We now have the chance at recompense, with a much more mature and fast-growing Indian economy, but one also where everyone benefits and is shielded from China’s mercantilist onslaught.
The interesting thing about this eastern Indian Ocean market integration is that financial resources required for infrastructure development – road and rail networks linking the South Asian countries with ASEAN at the edges – would be far lower than OBOR’s capital infusion for its purposes. All that is needed is to connect India and its neighbours to the ASEAN logistics network.
When SAU and ASEAN integrate, a blue ocean strategy for value innovation of the eastern Indian Ocean would have been achieved. This would serve as the model for the western half – to cajole, collaborate and partner with countries along the east coast of Africa to create a similar common market of their region. Here is where India and Japan could come together to create infrastructure networks comprising road, rail and power to knit the countries together. The blue ocean strategy here would be to ensure this is not colonialism of the sort China is rolling out but a markedly different one that emphasises consent, consultation, collaboration and value delivery for every one of the partners.
Value innovation would, and should, emphasise continued ownership of infrastructure and capacity to rest within the respective countries in return for the creation of a common market that would integrate with the eastern half of the Indian Ocean. The private sector of the collaborating nations could participate and invest in assets in the normal course of business, but it cannot be in the form of subsidy capital by India or Japan to promote their own enterprises. That is exactly what China is pursuing with OBOR. India cannot pursue mercantilist ideas of wholesale ownership of everything from raw materials to intermediaries to final products without attracting domestic ire and opposition in several countries.

The essence of value innovation is to eschew a fundamental notion of international diplomacy, particularly foreign economic policy, that individual strategies pursued by nations is a zero-sum game – i.e., the idea of a fixed pie wherein one nation wins and another inevitably loses. A blue ocean strategy for the Indian Ocean, on the other hand, would argue for a growing pie wherein all participants could seek to grow with.
Genuine cooperation is more easily achieved when win-wins are apparent and shared from a large and growing pie. This presents an opportunity for an international economic strategy that is markedly different from China’s, innovates all along the continuum, and makes possible an “uncontested market” for its members.
Pipe dream? Perhaps. The world could never have imagined China would ever realistically roll out or seek to execute OBOR in its current stated form. But they have. China does not emphasise common markets, has not offered a spirit of cooperation or a win-win. It has chosen to tread the past imperialist path of neo-Colonialism modified for the twenty-first century that seeks to pillage and plunder without bloodshed.
That is the difference in thought leadership in international diplomacy that India could offer. The Indian Ocean is big enough for creative partnerships that could deliver on this front. The only thing required: to stop thinking in terms of red oceans and competing with China head-on. Let China not consume our thinking. Leave Pakistan for China to fret over.
Instead, make China irrelevant for India’s purposes and for the purposes of the larger Indian Ocean community. This is a huge market: when the dust settles, it could be bigger than the Chinese market, with two-thirds of its demographics comprising a young population, and serve as effective ballast for the world economy.
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Tuesday, 23 May 2017

East-West Economic Corridor (EWEC)


East-West Economic Corridor (EWEC)
----------------------------------------India also planned
extend the India-Myanmar-Thailand highway to Cambodia, Lao PDR and Vietnam in the second phase.

The India–Myanmar–Thailand (IMT) trilateral highway is a highway under construction that will connect Moreh, India with Mae Sot, Thailand via Myanmar.

The road is expected to boost trade and commerce in the ASEAN–India Free Trade Area, as well as with the rest of Southeast Asia. India has also proposed extending the highway to Cambodia, Laos and Vietnam.[2] The proposed 3,200 km route from India to Vietnam is known as the East-West Economic Corridor (EWEC).

The Indian foreign ministry had already invited a tender for selection of a contractor for constructing 69 bridges, including approach roads on the Tamu-Kyigone-Kalewa section of the trilateral highway in Myanmar.

"India have now started the construction of the road and 69 bridges in Myanmar, and it is expected to be completed by 2019,"

India, under the present BJP-led NDA government, is also actively pursuing to implement the Act East Policy aimed at enhancing relations with Asean and other east Asian nations, especially through trade and commerce.

The trilateral highway will provide access for goods from the northeastern region and other parts of India to markets of Asean countries through a land route once Myanmar is connected by road to Thailand.

The proposed trilateral strategic agreement will facilitate movement of vehicles linking Manipur's Moreh (India) to Mae Sot (Thailand) via different routes in Myanmar.

During the visit of Thailand Prime Minister Gen. Prayuth Chan-O-Cha to India in June, both the countries agreed to expedite the construction of India-Myanmar-Thailand trilateral highway and hold negotiations on the India-Myanmar-Thailand motor vehicles agreement.

The trilateral highway, which is under renovation, includes 73 bridges and is expected to boost communication between the Northeast and Southeast Asia.

India provides funding for the renovations of 73 dilapidated bridges along the route that were originally built during World War II.

Route description

The highway's route will be Moreh (India) – Tamu (Myanmar) – Kalewa (Myanmar) – Yagyi (Myanmar) – Monywa (Myanmar) – Mandalay (Myanmar) – Meiktila (Myanmar) – Nay Pyi Taw (Myanmar) – Payagyi (Myanmar) – Theinzayat (Myanmar) – Thaton (Myanmar) – Hpa'an (Myanmar) – Kawkareik (Myanmar) – Myawaddy (Myanmar) – Mae Sot (Thailand).
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India-Japan `Freedom Corridor' set to counter China's OBOR


India-Japan `Freedom Corridor' set to counter China's OBOR
 The Indo-Japanese initiative, called the 'Freedom Corridor', stretching from Asia-Pacific to Africa, aims at stabilising the region amid Chinese designs that have a destabilising effect on countries of the region.

The Indo-Japanese project, proposed during a meeting between Indian Prime Minister Narendra Modi and Japanese PM Shinzo Abe at their annual summit at Tokyo last November, is expected to see a soft launch later this month, say reports.

Under the Asia-Africa connectivity initiative, India and Japan will support massive infrastructure projects and capacity building programmes in East Africa. Japan is expected to join India for developing the strategically-located Trincomalee port in eastern Sri Lanka. Besides, Japan will join India in the development and expansion of Iran's Chabahar port and the adjoining special economic zone, according to reports.


The two countries are also likely to join hands to develop Dawei port along the Thai-Myanmar border.

The India-Japan infrastructure development projects aims at developing quality infrastructure and the central theme of Japan's collaboration is Partnership for Quality Infrastructure (PQI), a theme developed by Japanese Prime Minister Shoinzo Abe.

The two countries are already collaborating in infrastructure development in northeast India and the Andaman and Nicobar Islands.

The plans are expected to get a further fillip during the Africa Development Bank meeting in Ahmedabad on 24 May, which will discuss joint projects on capacity building and infrastructure

India and Japan will be holding separate sessions with stakeholders from Africa on the sidelines of the Africa Development Bank meeting. Japan's state minister of finance will lead the country's delegation at the meet.

An India-Japan partnership to develop the `Mekong-India Economic Corridor (MIEC)' connecting the Kenya-Tanzania-Mozambique (KTM) growth zone through Jawaharlal Nehru and Kochi ports, will open up new vistas of Africa-Asia connectivity and help unlock Africa's true economic potential, say experts.

Countering China's expansionary tactics is important for India as the OBOR continental and maritime routes are of strategic concern for India both in terms of national security and also due to economic reasons.


India and Japan are set to unveil an Asia-Africa connectivity project, as a counter to China's massive 'One Belt One Road' (OBOR) initiative that proposes to simulate the China Pakistan Economic Corridor project elsewhere, including Europe and Africa as well.
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Tuesday, 16 May 2017

अरब का इतिहास : अभिजीत

अरब का इतिहास : अभिजीत
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अभिजीत

एशिया महादेश के दक्षिण-पश्चिम में बसे जमीन के एक बड़े टुकड़े को हम अरब प्रायद्वीप नाम से जानतें हैं. अरब नाम की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मान्यतायें हैं. एक मान्यता कहती है कि सीरिया की प्राचीन भाषा के एक शब्द 'अरबत' से यह नाम निःसृत है.'अरबत' शब्द का मतलब होता था मरुभूमि. अरबी भाषा में यही शब्द'रबबत'नाम से नाम आता है जिसका अर्थ है बलुआ भूमि. कुछ मान्यतायें ये भी कहतीं हैं कि संस्कृत के शब्द 'अर्व' से अपभ्रंश होकर यह शब्द बना है. एक मान्यता कहती है कि इसे ब्रह्मा पुत्र भृगु के दूसरे पुत्र महर्षि च्यवन के पुत्र और्व मुनि ने बसाया था, जिनके नाम पर इसका नाम पड़ा. महाभारत के आदि-पर्व में और्व मुनि का कुछ आख्यान मिलता है. यह भूमि भी हिन्द की तरह तीन तरफ से समंदर से घिरा है. पश्चिम की ओर लाल सागर है, जिसके उस तरफ मिस्र और सूडान बसे हुए हैं, पूरब की ओर से इसे फारस और अम्मान की खाड़ी ने घेर रखा है. इसके पूर्वी किनारे पर संयुक्त अरब अमीरात बसा है. फारस की खाड़ी के उस तरफ ईरान हैं जहाँ से अफगानिस्तान के रास्ते भारतीय उपमहाद्वीप का सड़क मार्ग मिलता है. दक्षिण की ओर से हिन्द महासागर, यमन और ओमान ने इसे घेरा हुआ है, इसके उत्तर में ईराक और जॉर्डन की सीमा लगती है तथा उधर के काफी हिस्से को रेगिस्तान ने घेरा हुआ है. इजरायल और फिलीस्तीन इसके उत्तर में अवस्थित हैं. तीन ओर से समुद्रों से घिरे होने के कारण इसे जजीरातुल-अरब कहतें हैं. यह विश्व का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है जिसकी कुल लंबाई लगभग डेढ़ हज़ार मील और चौड़ाई तेरह सौ मील है. पूरे अरब में नदी कहीं भी नहीं है, कई जगह छोटे-छोटे नाले हैं, जिनमें बरसात का पानी बहता है. कर्क रेखा अरब से होकर गुजरती है. यह पूरा भूभाग लगभग रेगिस्तानी है, सिर्फ तायफ़ जैसे एकाध जगहों पर कुछ खेती हुआ करती है, दक्षिण अरब में कुछ नखलिस्तान मिलतें हैं. यमन की तरफ कहीं-कहीं गेहूँ की खेती होती है और जौ ऊपजाया जाता है. फल और सब्जियों के लिये पूरा अरब तायफ़ और लैय्या पर निर्भर है. केवल खजूर है जो पूरे अरब में होती है इसलिये खजूर को अरब की पहचान मानी जाती है, वहां के झंडे पर भी खजूर को स्थान दिया गया है. दुनिया में सबसे अधिक अलग-अलग किस्म की खजूरें अरब में पैदा होती हैं. वहां का भौगोलिक विभाजन अरब को आठ हिस्सों में तकसीम करता है. हिजाज, यमन, हज़रमूत, महरा, बहरीन, नज्द, अहकाफ और अम्मान. अल-हिजाज अरब के पश्चिमी हिस्से में बसा है. मक्का, मदीना, तायफ़, खैबर, उहद, हुनैन, ग़दीरे-ख़ुम और तबूक जैसे इस्लामिक महत्त्व के कई शहर इसी हिस्से में बसे हैं. तायफ की आबोहवा बाकी अरब की तुलना में काफी पसंदीदा मानी जाती है. यहाँ मेवे खूब मिलतें हैं, अरब में इसे जमीन पर स्वर्ग कहा जाता है. हिजाज की सीमायें लाल सागर से छूती हैं. जेद्दाह बंदरगाह भी अरब के इसी हिस्से में है. अरब की प्राचीन जातियों और उनके नगरों के अवशेष इसी हिस्से में मिलतें हैं. कुछ लोगों का ये भी मत है कि दरअसल अरब का मूल नाम हिजाज ही है. अल्ताफ-हुसैन हाली की रचनाओं में ये दिखता भी है, जब वो इस्लाम को दीने-हिजाजी कहते हुए लिखतें हैं, वो दीने-हिजाजी का बेबाक बेड़ा......हिजाज से पूरब की ओर का हिस्सा नज्द कहलाता है जहाँ से इस्लाम का बहाबी मत आरम्भ हुआ था. नज्द का मतलब है ऊँचाई वाली जमीन. करीब 12 लाख वर्गमील में फैले अरब भूमि का लगभग सारा हिस्सा शुष्क पठार और रेगिस्तानी इलाकों से भरा हुआ है. 5 लाख वर्गमील भूमि लगभग मानव-शून्य है. मिट्टी की संरचना के आधार पर अरब भूमि को तीन भागों में तक्सीम किया गया है. उत्तरी अरब सफ़ेद रेत से आच्छादित है, जो नुफूद कहलाता है फिर नूफूद से लेकर सूदूर दक्षिण तक का भाग अल-दहना, अल-धना या अल-रब्बुल-खाली नाम से मशहूर है. ये पूरा क्षेत्र लाल रेत से पटा है जो लगभग ढ़ाई लाख वर्गमील में विस्तारित है. तीसरा हिस्सा भूरे और शुष्क पठारों का इलाका है जिसे अल-हरा कहा जाता है. पूरे अरब में वर्ष भर गर्म हवायें चलतीं रहतीं हैं, ये हवायें लू की शक्ल में होतीं हैं. अरब के कई इलाकों में तो ऐसी लू चलती हैं जिसका एक थपेड़ा भी किसी की जान ले सकता है. अरब इन मौत देने वाली हवाओं को बादे-समूम या जुहैरिया हवा कहतें हैं. हिजाज के इलाके में तीन-तीन, चार-चार साल तक पानी नहीं बरसता. तहामा के इलाके में जब लू के थपेरे चलतें हैं तब ऊंट अपने चारों पैरों को जोड़ कर उसके अंदर अपने मालिक को छुपा लेता है. हिजाज के जुनूबी हिस्से में तहामा का इलाका है. उस इलाके में लगभग हर समय रेतीली आंधी चलती रहती है, इसलिये आतंकी इन इलाकों में अपने ट्रेनिंग कैम्प चलातें हैं ताकि दूसरे देश की निगाहों से बचे रह सके.
अरब में इंसान दो रूपों में आबाद रहे. एक वर्ग बद्दू या देहाती था जो मुख्यतया खेती और पशुपालन से अपनी जीविका चलाता था और दूसरा वर्ग व्यापारी और संभ्रांत था जिसके व्यापारिक रिश्ते दुनिया भर में थे. जिनके अंदर राजनैतिक चेतना थी. ऐसा नहीं है कि अरब के अंदर का यह इंसानी विभाजन इस्लाम के आने के बाद खत्म हो गया. बद्दू अरब आज भी वहां पाये जातें हैं. बद्दू अस्थिर जीवन जीने के आदी थे, आज यहाँ तो कल वहां. उत्तरी अरब में बद्दू अधिक थे और दक्षिण अरब में शहरी. अरब के दोनों श्रेणियों के लोगों में कई बात कॉमन थी और वो ये कि ये लोग अपने वंश, रक्त और कबीले को लेकर बड़े अभिमानी थे. उनके नाम इसकी पुष्टि करते हैं, किसी अरब से उसका नाम पूछिए तो अपने पीछे के कई पूर्वजों का नाम वो झटके में बता देता था. जैसे अली बिन अबू तालिब बिन अब्दुल मुतल्लिब बिन हाशिम बिन अब्दे-मुनाफ. उनके अंदर अपने अतीत गौरव को पहचानने का बोध इतना था कि वो मानते थे कि उनके सिवा दुनिया में और कोई नहीं है जिसके पास अपने पूर्वजों को लेकर ऐसी शानदार जानकारी और गौरव-बोध हो. अरब के इन दोनों श्रेणियों के लोगों में एक बात और कॉमन थी वो थी न हम किसी को अपने अधीन करेंगे और न किसी के अधीन रखेंगे. इसलिये इस्लाम पूर्व अरब में जो जंगे होतीं थी उसका आधार सिर्फ और सिर्फ वंश-गौरव को ऊँचा रखना था. यानि वो लूटेरे नहीं थी, जंग को जीविकोपार्जन और साम्राज्य-विस्तार का साधन नहीं मानते थे.

"हदीसें कहतीं हैं कि इस्लाम पूर्व अरब में 1700 से अधिक युद्ध लडे गये पर इनमें एक भी पानी के लिये नहीं था, ये हैरतनाक इसलिये है क्योंकि पानी रेगिस्तान के लिये अमूल्य संपदा मानी जाती है".

तीसरी बात कॉमन थी कि ये सब ऊंट के ऊपर सबसे ज्यादा निर्भर थे. चाहे वो बद्दू हो या शहरी अरब, हरेक खुद को अहल-अल-जमल यानि ऊँटों वाले कहलाना पसंद करता था. आर्थिक सम्पन्नता का आधार ऊंट ही थे. ऊँटों के अलग-अलग नस्लों के गुणों, कमियों और विशेषताओं पर हर अरब महारत रखता था. ऊँट इनके लिये सबसे मुफीद जानवर इसलिये भी था क्योंकि अरब को सबसे अधिक लाभ इनसे ही पहुँचता था. ये ऊंटनी का दूध पीते थे, उससे सवारी का काम लेते थे, उसका मांस खाते थे, उसके खाल से कपड़े और तम्बू बनाते थे, उसकी मेगनी को ईंधन रूप में इस्तेमाल करते थे, उसके मूत्र का प्रयोग दवा के रूप में करते थे और कई बार पानी का अभाव होने पर उसे मारकर उसके अंदर का पानी इस्तेमाल करते थे. दूसरे पशुओं में इनकी निर्भरता घोड़े पर थी, घोड़ों से इनकी मुहब्बत इतनी थी कि पानी की अनुपलब्धता की स्थिति में ये खुद प्यासे रखकर भी अपने घोड़ों को पानी पिला देते थे.

अरबों के संबंध में दो बात हैरान करने वाली है कि प्राचीन काल में अरबी सम्पूर्ण प्रायद्वीप की भाषा नहीं थी, बल्कि अरबी केवल वहां के बद्दू बोलते थे जो अरब के उत्तरी भाग में आबाद थे, दक्षिण अरब की भाषा हिमारती थी जो अब लुप्तप्राय है. दूसरी हैरान करने वाली बात ये है कि उन अरबों में से कोई भी खुद को आदम का वंशज नहीं मानता था. ये अवधारणा वहां बाद में इस्लाम ने डाली. इस्लामी तारीख लिखने वाले अरब के इतिहास को हजरत इब्राहीम और उनके बड़े बेटे इस्माइल से आरम्भ करते हैं, जबकि अरब की तारीख कहीं दूर से आरंभ होती है. अरब में कुछ मूल निवासी आबाद थे तो कई बार बाहर से आकर भी वहां लोग आबाद होते रहे. वैसे तारीख में अरबों की तीन किस्में मानी जाती है. एक अरब कहलातें हैं, अलअरब-उल-बायदा, दूसरें हैं अलअरब-उल-आरेबा और तीसरें हैं अल-अरब-उल-मुस्तारबा. अरब लोगों की तीन श्रेणियों में विभाजन का एक बड़ा आधार अरबी भाषा भी है. अरबी भाषा के बारे में एक बड़ी गलतफहमी है कि ये केवल मुसलमानों की भाषा है जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है. इस्लाम के साथ इसका संबध मात्र इतना ही है कि कुरान जिस भाषा में उतरा था वो अरबी थी. अरबी संसार की प्राचीनतम भाषाओँ में एक मानी जाती है. सेमेटिक मजहब की भाषाओँ में यह हिब्रू के समकक्ष है. भविष्य पुराण की माने तो नोहा (नूह) के जमाने में भगवान बिष्णु ने भाषा को सहज करने की दृष्टि से एक मलेच्छ भाषा को जन्म दिया था और उसे नोहा (नूह) को सिखाया था, इस भाषा को हिब्रू कहा गया जो दायें से बाईं ओर लिखी जाती है. 'ही' मतलब हरि और ब्रू मतलब बोला गया यानि जो भाषा हरि के द्वारा बोली गई वो हिब्रू कहलाई.

इस्लाम के अहमदिया फिरके के संस्थापक की मान्यता थी कि अरबी भाषा सामी परिवार की दूसरी भाषाओं यथा इब्रानी, आरामी, सबाई, आशूरी, फिनीकी आदि भाषाओँ की जननी है पर उनके दावों को भाषा-विज्ञानियों की सहमति नहीं मिली. भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार अरबी इन भाषाओँ की माँ नहीं बल्कि बहनें हैं क्योंकि अरबी भाषा के बहुत से शब्द तथा व्याकरण के नियम अन्य सामी भाषाओँ से साम्यता रखतें है. कुछ मान्यता ये भी है कि अरबी संस्कृत से जन्मी है. इसके प्रमाण में अरबी के कई शब्द गिनाये जाते हैं जो मूल संस्कृत से निकले हैं. अरबी का संदल शब्द संस्कृत के चन्दन से, तनबूल शब्द ताम्बूल से, करनफल शब्द कर्णफूल से, कर्फास शब्द कर्पास से, नर्जिल शब्द नारिकेल से जन्मे है. कुरान में भी कई शब्द हैं जो संस्कृत से निकले हैं, जैसे कुरआन की सूरह अद-दहर् की 17वीं आयत में आता है- ‘व युस्क़ौ न फ़ीहा कअसन का न मिज़ाजुहा जंजबीला’ अर्थात् और वहां उनको ऐसा जाम पिलाया जायेगा जिसमें सोंठ की मिलावट होगी. इस आयत में अदरक के लिये प्रयुक्त अरबी शब्द है ‘जजंबील’ जिसकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द श्रृंगवेर् से हुई है. इसी तरह कुरान की एक आयत में आता है, इन्नल अब्रा र लफ़ी नई म अ़लल अराइकि यन्जु़रुन तअरिफु फ़ी वुजूहिहिम ऩज्रतन्नईम युस्कौ़ न मिर्रहीकि़म मख़्तूम खि़तामुहू मिस्क यानि ‘और उन्हें खालिस शराब पिलाई जा रही होगी जो मुहरबंद होगी, मुहर उसकी मुश्क की होगी, बढ़-चढ़ कर अभिलाषा करने वालों को इसकी अभिलाषा करनी चाहिये.' कस्तूरी को संस्कृत में ‘मुश्क’ कहा जाता है और इसी का अरबीकृत रुप मिस्क है जो जन्नत की नेअमत के रुप में इस आयत में बयान हुआ है. संस्कृत के और शब्द भी कुरान में मिलतें हैं, जैसे, पवित्र कुरआन की एक आयत में आता है- ‘इन्नल अब्रा र यश्रबू न मिन कअसिन कान मिज़ाजुहा काफ़ूरा ।’ ‘बेशक नेक लोग ऐसे जाम से पियेंगें जिसमें काफूर की मिलावट होगी।’ (सूरह अद्-दहर, आयत-5) उपरोक्त आयत में प्रयुक्त ‘काफूर’ शब्द मूल संस्कृत शब्द ‘कर्पूर’ का ही अरबीकृत रुप हैं.

अरब को जो लोग भी झटके में जाहिल कह देतें हैं उन्हें मालूम ही नहीं है कि इस्लाम पूर्व अरब के लोग साहित्य की दृष्टि से कितने ऊँचे थे. अपने भाषा पर उन्हें इतना गुरूर था कि अपने आगे वो शेष विश्व को मूक और गूंगा कहते थे. मक्का में उकाज नाम के जगह पर अरब के तमाम कवि और साहित्यकार इकट्ठे होते थे, उनके बीच काव्य और शेरो-शायरी की प्रतियोगितायें होतीं थी और विजेता के काव्य को मृग-छाले या स्वर्ण-पत्र पर अंकित कर काबे की दीवार में लगाया जाता था. जो उस काव्य-प्रतियोगिता में विजयी होता था उसे उसके कबीले वाले सर-आँखों पर बिठा लेते थे, महिलायें उनकी बलायें लेतीं थीं. ये भाषाविद युद्ध के लिए शौर्य गीत लिखते थे तो ईश्वर की आराधना के पद भी उनके कलम से निकलते थे.
कुरान अरबी भाषा में है महज इसलिये अरबी भाषा से हमारा ताअल्लुक नहीं ऐसी सोच गलत है. इस्लाम पूर्व के कवियों की रचनाओं में महादेव, वेद और भारत भूमि की स्तुति के पद मिलतें हैं. प्राचीन अरबी काव्य-ग्रन्थ सेररूल-ओकुल में अंदर ऐसे कई पद मिलतें हैं. इसी काव्य-संग्रह में अरबी कवि लबी-बिन-ए-अरबतब-बिन-तुर्फा की लिखी महादेव स्तुति मिलती है. दिल्ली के बिरला मंदिर की यज्ञशाला में वो आज भी प्रस्तर पर लिखा हुआ मिलेगा. लबी बिन ए अख़्तब बिन ए तुर्फ़ा की भगवान शिव के लिये लिखी गई स्तुति गूगल पर सहजता से उपलब्ध है. इसी काव्य-संग्रह में उमर-बिन-हशशाम की लिखी कविता भी मौजूद है जो मुहम्मद साहब के समकालीन थे. उमर-बिन-हशशाम अरब के प्राचीन धर्म को बचाने की जंग में बलिदान हुए. इस काव्य-संग्रह में जिन दूसरे कवियों और शायरों की रचनाएं हैं उनके नाम हैं, इम्र-उल-क़ैस, जुहैर, अंतरा, अलकमा, तरफ़ह, लबीद, अम्र-बिन-कुलसूम, अंतरह, नाबिग़्हा, हिम्माद उल राबिया, हारिस बिन हिलिज्ज़ा आदि. इस्लाम के आगमन के पूर्व अरबी भाषा में कई पुराणों का अनुवाद भी हुआ था. अरबी में अनुदित अति-प्राचीन भागवत पुराण का मिलना इसकी पुष्टि करता है. इसका अर्थ ये है कि अरबी लोग अनुवाद की कला में भी महारत रखते थे. अरब में ये खासियत थी कि वहां हर उम्र के लोग शायरी करते थे. काव्य में कसीदाकारी, वीर-रस की कवितायें, ताने देतीं हुई रचनाएं, तुकबंदी करती शायरी ये सब उनकी विशेषतायें थीं. अरब सबसे अधिक सम्मान अपने कवियों और शायरों का करते थे, उनका सम्मान इतना अधिक था कि वो अपने कबीले के लिये परामर्शदाता, मार्गदर्शक, अभिभावक और प्रतिनिधि माने जाते थे.
अरबी की भाषाई श्रेष्ठता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि कुरान कई स्थानों पर अरब वालों को भाषाई शास्त्रार्थ की चुनौती देता दिखता है. अकेला भाषा ही वो आधार है जो इस्लाम पूर्व अरब को जाहिल कहने की सारी गुंजाईशें खत्म कर देता है. अल-दावी का काव्य-संग्रह अल-मुफ़द्दलिआत' 120 मधुर गीतों का संकलन है, अल-दावी की कई रचनाएं काबा की दीवारों पर सुशोभित थीं. किताबुल-अगानी नाम के काव्य-संग्रह में अरब की गौरवशाली वंश परम्परा का वर्णन मिलता है. वहां के अन्य बड़े कवियों में एक नाम अंतरा इब्ने-शद्दार अल अबू का भी है जो शौर्य-गीत रचा करते थे. अरब के ऊपर एक आरोप महिला-विरोधी होने का भी है. जबकि उस समय के बड़े कवियों में कुछ महिलायें भी थीं जिनमें सबसे बड़ा नाम कीर्ति खनसा का है, उसके भाई की निर्मम हत्या कर दी गई थी जिसके बाद उसने अपने दर्द को काव्य रूप में लिखा था. काव्य की मर्सिया विधा ने अरब भूमि से जन्म लिया था. अरब के बारे में एक गलत धारणा डाली गई है कि ये सारे लोग इब्राहीम के बेटे इस्माईल के वंशज हैं. ये अवधारणा सही नहीं है. अरबों का वजूद इस धरती में हजरत नूह (नोहा) से भी काफी पहले का है पर कुछ लोगों के अनुसार अरब में जो आबादी सबसे पहले बसी थी वो नूह के बेटे हाम की औलादों में थी तो दूसरी मान्यता मूल अरबों को नूह के दूसरे बेटे साम की औलाद मानती है.

अरबों की तीन किस्मों में जिन बायदा अरबों का जिक्र पहले किया था ये वो लोग थे जो मूल (original) अरब थे. इनका इतिहास सबसे प्राचीन है और ये अरबी भाषा के जनक माने जातें हैं पर ये वो लोग थे जो आंधी-तूफ़ान, बाढ़, महामारी वगैरह के चलते नष्ट हो गये. इन अरबों में अब कोई भी बाकी नहीं बचा है. इन अरबों से जुड़ी निशानियाँ यशरिब (मदीना) से खैबर और मद्यन के रास्ते में तथा यमन वगैरह में आज भी पाई जाती हैं. बायदा अरबों में पहला नाम आता है आद जाति का. ये जाति लगभग 2500-3000 ईसा पूर्व नष्ट हुई थी और यमन के पास हजरमौत नाम की जगह पर और कुछ ओमान के पास आबाद थी. ये लोग बड़े शक्तिशाली हुआ करते थे, कहतें हैं कि अरब के सर्वप्रथम बादशाह आद जाति से हुए थे, इनका रूतबा आस-पास के तमाम इलाकों में था. आद लोग मूर्तिपूजक और बहुदेववादी थे तथा मुख्यतया तीन तरह की देवियों की उपासना किया करतें थे जिनके नाम समदा, समूदा तथा हरा था. 'आद' इस वंश के मुखिया का नाम था. कुछ मान्यता इन्हें भगवान श्रीकृष्ण से संबद्ध करते हुए कहती हैं कि ये यदुवंश के उन बचे लोगों में से थे जो यादवी संग्राम के दौरान द्वारिका के जलमग्न होने से पूर्व वहां से निकल गये थे. इन लोगों में हूद नाम के सुधारक भेजे जाने का वर्णन मिलता है, हूद को कुछ लोग नूह के बेटे साम का पोता मानतें हैं. हूद के बारे में कहा जाता है कि उनकी कब्र आज भी हजरमौत में मौजूद है, उस जगह पर अब बड़ा मेला लगता है. आद लोगों का एक नाम इरम भी था, इन लोगों ने कई बड़े और भव्य नगर बसाये थे. इब्रानी लोग आद लोगों को रशम कहा करते थे, इब्रानी में रशम का अर्थ है पत्थरों में रहने वाले. आज भी मद्यन इलाके के पहाड़ों में इनके द्वारा बनाये गुफाओं का निशान मिलता है, उन गुफाओं में आरामी और समुदी भाषा में लिखे कई अभिलेख मिले हैं जिन्हें पढ़ने की कोशिश जारी है. एक प्रचंड तूफान में ये जाति नष्ट हुई. कुछ विद्वान ये भी मानतें हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात् हुए विस्थापन ने कई लोगों को अरब और उसके निकटवर्ती प्रदेशों में आबाद कर दिया था. शाम देश (सीरिया) भगवान कृष्ण के नाम श्याम से साम्यता रखता है.
बायदा अरबों में एक नाम समूद जाति का भी है. समूद या समुद्र जाति का वर्णन सबसे पहले अरस्तू आयर बतलीमूस की किताबों में मिलता है, ये लोग हिजाज और तबूक के दरमियान आबाद थे और भवन निर्माण में बड़ी कुशलता रखते थे तथा बड़े कुशल समुद्री व्यापारी थे. सालेह या फल्ज़ नाम के व्यक्ति को इनका सुधारक माना जाता है. सालेह भी नूह-वंशी थे और उनके दादा समूद के नाम पर उनकी जाति का ये नाम था. इनका काल इब्राहीम से 300 से 500 साल पहले का है. सालेह को तौरात में फल्ज़ नाम से बुलाया गया है और उत्पत्ति ग्रन्थ में उनका वर्णन आता है. कुरान इस जाति को मूसा से पहले का बताता है. ये जाति पहाड़ों में मकान बनाकर रहा करती थी और बहुदेवतावादी थी. मूर्तिपूजक भी थी क्योंकि इनके द्वारा बनाये घरों के जो निशान मिले हैं उसमें मूर्ति और देवी-देवताओं की दीवारों पर उकेरी गई तस्वीरें मिली है. इस कड़ी में कौमे-लूत का नाम भी शामिल है जो ओमान के इलाके में आबाद थे, ये जाति भी एक प्राकृतिक आपदा के चलते विनष्ट हुई थी. इसके अलावा अबैल, अमालका, तसम, जदीस जैसी कौमें भी वहां आबाद और विनष्ट होतीं रहीं.
अरब की दूसरी किस्म आरेबा (True Arabs) कहलातीं हैं. इन्हें कहतान की औलाद माना जाता है और कहतानी कहकर भी बुलाया जाता है. इन आरेबा अरबों के बारे में कहा जाता है कि इनमें से कुछ लोग पूरब की ओर काबुल के पास (यानि तब के हिन्द) से भी आये. इनमें से एक का नाम था यारब था. ये लोग कहतान के वंशज थे और सूर्य पूजक थे, इनके वंश में हुए एक शासक का नाम था अब्दुस शम्स (यानि सूर्य का दास). इन बायदा अरबों का काल प्राचीन अरब के लिये स्वर्ण-युग था क्योंकि ये लोग मक्के के दक्षिणी इलाके से निकलकर बेबीलोन, सीरिया और मिस्र तक गये और अपनी संस्कृति का विस्तार किया. बाबिल से ही हम्बूराबी का नाम जुड़ा हुआ है जिसके न्याय-व्यवस्था के बारे में हमलोग इतिहास की किताबों में पढतें हैं. हजरमौत के इलाके से लेकर खलीज-फारस के दरम्यानी इलाके समृद्ध अरब की गवाह थी. ये लोग जलयात्रा में दक्षता रखते थे. इनका निवास यमन के इलाके में भी था. बायदा अरबों के विनाश के बाद इनके बारे में कहा जाता है कि ये मूल अरब थे. लाल सागर से लेकर फारस की खाड़ी के बीच आबाद कई अरबों का आज भी ये दावा है कि वो आरेबा अरब यानि मूल अरब हैं. यमन वगैरह में आज भी कहतान नाम आम है. इस्लामी किताबों के अध्ययन से भी मालूम होता है कि कहतान कबीले के लोग आज भी वजूद में हैं. कयामत से जुड़ी पेशीनगोईयों में कहतान का जिक्र कई दफा आता है. हदीसें कहतीं हैं कि याजुज और माजुज के खातमे के बाद ईसा अपनी हुकूमत कायम करेंगे और फिर उनकी वफात हो जाएगी और मुसलमान उनकी नमाजे-जनाज़ा अदा करेंगे और उनको रसूल के पहलू में दफ़न करेंगे. फिर यमन के कबीले "कहतान" से एक शख्स जिसका नाम जहजाह होगा, खलीफा बनेगा और अद्ल-इन्साफ के साथ हुकूमत करेगा. कहतान कबीले का जिक्र बुखारी और मुस्लिम शरीफ में भी आया है. हजरत अबू हुरैरा से रिवायत एक हदीस में आता है, नबी ने फरमाया कि क़यामत तब तक कायम नहीं हो सकती जब तक यमन के कबीले कहतान से ऐसा शख्स जाहिर न हो जो लोगों को अपने लकड़ी से हांकेगा. यमन का कबीला जुरहम इन्हीं लोगों में आता है.
आरेबा और मुस्तारेबा को सम्मिलित रूप से अरब-बाकिया भी कहा जाता है. अरब की इस तीसरी किस्म मुस्तारेबा और आरेबा में एक मूल अंतर ये है कि जहाँ आरेबा अरबों की मूल जुबान अरबी थी वहीँ मुआतारेबा वो थे जिन्होनें आरेबा लोगों से अरबी जुबान सीखी. मुस्तारेबा मूल अरब नहीं थे. बल्कि ये बाहरी लोग थे जिन्होनें अरबियत की अपनाया था. रोचक बात ये है कि पैगम्बरे-इस्लाम भी इन्हीं मुस्तारेबा अरब में से हैं, यानि पूर्वज परंपरा से वो मूल अरब नहीं थे.
भारत में जो लोग मैकाले द्वारा गढ़े गये आर्य-द्रविड़ के झूठे सिद्धांत का आड़ लेकर यहाँ के हिन्दुओं पर हमले करते हुए उनका ये कहकर मजाक उड़ातें हैं कि तुम्हारा हिन्द से क्या ताअल्लुक ? तुम सब तो बाहरी लोग हो, उन सब लोगों के लिये मुस्तारेबा-अरब का ये सत्य मुंहतोड़ जबाब है.
अरबों की तीसरी किस्म मुस्तारेबा के बारे में समझने के लिये हमें यहूदी इतिहास कथाओं में जाना होगा क्योंकि ये कड़ी वहीँ जाकर जुड़ती है. इब्राहीम से इसका ताअल्लुक है, ये इब्राहीम वहीँ हैं जिनसे हर सेमेटिक मजहब वाला अपना संबंध जोड़ता है और उनको अपना पितृ-पुरुष मानता है. इब्राहीम के बारे में जानने के तीन जरिये हैं, एक है तौरात जिसके पहले अध्याय यानि उत्पत्ति ग्रंथ में उनका बड़ा विशद वर्णन आया है. दूसरा है कुरान, हदीसें और इस्लाम से संबद्ध और दूसरी किताबें और तीसरी है भविष्य पुराण जिनमें उनका 'अविराम' नाम से वर्णन मिलता है. तौरात और इस्लामी ग्रंथों में इब्राहीम का जो वर्णन है उसमें बहुत ज्यादा विभेद है. उदाहरण के लिये तौरात में इब्राहीम के पिता का नाम तेरह (तारा) आया है तो वहीं कुरान कहता हैं कि उनके पिता का नाम आज़र था परन्तु कुरान से यह बात साबित है कि इब्राहीम जिस शहर में पैदा हुए थे वो प्रकृति पूजक और मूर्ति में ईश्वर देखने वाले लोग थे. उनके लोग चाँद और नक्षत्र की पूजा करते थे. तौरात और इस्लामी ग्रंथों के अनुसार इब्राहीम इराक के शहर उर में पैदा हुए थे जबकि दूसरी मान्यता कहती है कि वो पैदा तो इराक में ही हुए थे पर शहर का नाम कोशा था न कि उर. उनकी पैदाइश में बारे में कहा जाता है कि वो ईसा से करीबन 2000 साल पहले पैदा हुए थे. इब्राहीम का पहला निकाह सारा नाम की लड़की से हुआ था जो उनकी चचाजाद बहन थी. तौरात कहती है कि दमिश्क के पास के एक शहर हारान से वो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात निकल गये और कनान देश में जाकर बस गये. वहां उनके साथ उनके भाई हारान का बेटा यानि उनका भतीजा लूत भी था. फिर वहां से अब्राहम (इब्राहीम) मिस्र चले गये. सारा की खूबसूरती पर लट्टू होकर वहां के बादशाह ने सारा का अपहरण कर लिया पर इब्राहीम ने उससे ये कहकर कि 'ये मेरी बहन है' किसी तरह मुक्त कराया. मिस्र से कनान लौटते हुए इब्राहीम और सारा ने एक लौंडी भी साथ लिया जिसका नाम हाज़रा था. विवाह के अनेक वर्ष के पश्चात् भी जब सारा से इब्राहीम की कोई औलाद नहीं हुई थी तो औलाद के लालच में सारा ने इब्राहीम से कहा कि तू उस लौंडी के पास जा, संभव है कि मेरा घर उसके द्वारा बस जाये. फिर इब्राहीम को हाज़रा से इस्माइल नाम का पुत्र हुआ.
ये कथा मुस्लिम और यहूदी के बीच झगड़े की सबसे बड़ी वजह है. इसका कारण ये है कि इब्राहीम और हाजरा के ताअल्लुक को लेकर यहूदी ग्रन्थ तौरात और इस्लामी ग्रंथों में बड़ा जबरदस्त मतभेद है. तौरात में ऐसा कोई वर्णन नहीं है कि इब्राहीम ने हाजरा से निकाह किया था जबकि इब्ने-हजर जैसे इस्लामी विद्वान कहतें हैं कि हाजरा लौंडी नहीं थी बल्कि मिस्र के राजा के बेटी थी और उनका इब्राहीम के साथ निकाह हुआ था. बाद में बीबी सारा से भी इब्राहीम को एक औलाद हुई जिसका नाम इसहाक था. अब झगड़ा ये है कि पूरा अरब जगत इस्माइल को अबू अरब यानि अरबों के पितामह के रूप में जानता है और पूरी उम्मते-मुस्लिमा खुद को इस्माइल वंशी कहता है और इधर यहूदी जगत खुद को इसहाक वंशी मानतें हैं. अब अपने ग्रन्थ के आधार पर यहूदी इस्माइल वंशियों को ये कहते हुए हेय समझतें हैं कि जरखरीद दासी से पैदा हुई औलाद के वंशज सम्मान के लायक कैसे हो सकतें हैं जबकि इधर मुस्लिम दावा इसके बरअक्स है.
अब्राहम के संबंध में दो बातें बड़ी मशहूर है. एक ये कि ये नाम हिन्दुओं के त्रिदेवों में एक ब्रह्मा के नाम हिब्रू रूपांतरण है. ऐसा कहने वालों का तर्क है कि अब्राहम का मूल नाम अब्राम था जो बाद में यहोवा के साथ वाचा बाँधने के कारण अब्राहम हो गया. तौरात के उत्पत्ति ग्रन्थ के अनुसार अब्रहाम का अर्थ है 'कई कौमों का बाप'. भारतीय परंपरा में भी ब्रह्मा को सभी देवताओं, दानवों और मानवों का पितामह माना जाता है. अब्राहम को ही अरबी में इब्राहीम कहा गया है. ब्रह्मा और अब्राहम में साम्यता ढूँढने वालों का एक तर्क ये भी है कि कुरान में इब्राहीम के बारे में आता है कि सबसे पहले उन्हें ही सहीफे (किताब) दिए गये थे और इसी तरह भारतीय परंपरा में भी ये माना जाता है भगवान विष्णु की प्रेरणा से सरस्वती ने सर्वप्रथम ब्रह्मा जी को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान कराया. साम्यता ढूँढने वालों का तर्क ये भी कि ब्रह्मा की पत्नी सावित्री और अब्राहम की पत्नी सारा के नाम में भी समानता है, वो ये भी कहतें हैं कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अंगिरस ही उनके बेटे इसहाक थे. अब्राहम के जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण, रोचक और हैरान करने वाली बात है कि उनकी कथा और हमारे यहाँ के भक्त प्रहलाद की कथा में काफी कुछ साम्यता है. प्रहलाद का अपने पिता हिरण्यकश्यप के साथ ईश्वर की अवधारणा को लेकर मतभेद था और इब्राहीम की कथा में भी ऐसा ही कुछ है. प्रहलाद के ऊपर उसके पिता यानि उस वक़्त के शासक हिरण्यकश्यप ने बड़े अत्याचार किये थे, उनको जीवित ही अग्नि में झोंक दिया था, ऐसा ही इब्राहीम के साथ भी उस वक़्त के बादशाह नमरूद ने भी किया. इब्राहीम को भी आग में डाला गया था पर दोनों ही ईश्वर की कृपा से बचा लिए गये. नमरूद और हिरण्यकश्यप दोनों का अंत ईश्वर के दंड के परिणामस्वरुप हुआ था.

तौरात के उत्पत्ति ग्रन्थ से हमें जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार जब हाजरा हामिला हुई थी तबसे ही दोनों सौतनों में झगड़े होने लगे थे. सारा इब्राहीम के पास शिकायत लेकर पहुँच गई कि अब चूँकि ये लौंडी गर्भ से है और मैं नहीं हूँ, इसलिये वो मुझे हकीर (कमतर) समझती है. इसपर इब्राहीम ने सारा से कहा, वो तेरी लौंडी है उसपर तेरा हक़ है, तू उसके साथ जो चाहे कर. उसके बाद सारा उसके ऊपर सख्ती दिखाने लगी जिससे आजिज आकर हाजरा घर छोड़ कर भाई गई. फिर किसी फ़रिश्ते के समझाने के बाद वो वापस सारा के पास आ गई और उसे इस्माइल नाम का पुत्र हुआ. इब्राहीम जब पिता बने उनकी उम्र छियासी साल की थी. जब इब्राहीम सौ साल के हुए तो उनका खुदा के साथ संवाद हुआ और उन्हें और उनकी बूढ़ी पत्नी सारा को एक औलाद की खुशखबरी दी गई. फिर इब्राहीम को सारा से इसहाक नाम का एक और पुत्र हुआ. जब सारा भी औलाद वाली हो गई तो दोनों सौतनों में फिर से क्लेश बढ़ गया और सारा ने इब्राहीम से साफ़ कह दीजिये कि इस लौंडी के बेटे को मैं तेरा वारिस नहीं बनने दूँगी. सारा के दबाब में इब्राहीम ने अपनी लौंडी और उससे हुए बच्चे इस्माइल को घर से निकाल दिया. घर से निकालते वक्त इब्राहीम ने उन्हें बस कुछ रोटी और पानी का मश्क ही दिया. बेचारी हाजिरा अपने बेटे को लेकर बियाबान में भटकने लगी. जब रोटी और पानी दोनों खत्म हो गये तो वो अपने बेटे को एक झाड़ी के पास रखकर वहां से दूर जाकर बैठ गई ताकि पानी के अभाव में बेटे को तड़प-तड़प कर मरते हुये न देख सके. फिर कोई फ़रिश्ता आता है और उसे एक कुआँ दिखाता है है जिससे दोनों की जान बचती है, बाईबल के अनुसार हाजिरा और इस्माइल जहाँ आबाद हुए थे वो फारान का बंजर, बियाबान और रेगिस्तानी इलाका था. इस्माइल और हाजिरा को लेकर इस्लामिक और यहूदी मान्यताओं में बड़ा फ़र्क है पर तमाम अंतरों के बाबजूद एक बात दोनों में समान है कि इब्राहीम ने अपने बच्चे और बीबी को घर से निकाल दिया था और वो भी उनके राशन-पानी और सुरक्षा का इंतज़ाम किये बिना. उन दोनों को बियाबान रेगिस्तान में खूंखार जंगली जानवरों के बीच भूखा-प्यासा छोड़ दिया गया.
इस्माइल और हाजिरा के बारे में इस्लामिक मान्यता क्या है इसकी चर्चा आगे होगी पर एक बात यहाँ तवज्जो-तलब है और वो ये कि अपने अतीत में इब्राहीम द्वारा अपने बच्चे और बीबी/लौंडी के परित्याग का इतिहास रखने वाले जब राम द्वारा सीता के परित्याग पर प्रश्न उठाते हैं तो बड़ी हैरत होती है वो भी तब जबकि राम ने सीता को किसी रेगिस्तान में नहीं बल्कि ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ा था.
सामी मजहबों के आदि पुरुष इब्राहीम द्वारा अपनी बीबी/लौंडी हाजरा को घर से निकालने को लेकर तौरात और इस्लामी ग्रंथों में बड़ा मतभेद है. यहूदी मान्यता कहती है कि जब इब्राहीम के बड़े बेटे इस्माइल तेरह साल के थे तब उन्हें माँ समेत घर-निकाला दिया गया था पर इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार जिस समय इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा को घर से निकाला था उस समय उनके बेटे दूध पीते बच्चे थे. कुरान के सूरह इब्राहीम और बुखारी शरीफ के किताबुल-अंबिया में इसका वर्णन विस्तार से आया है. जब इब्राहीम हाजरा और इस्माइल को छोड़ कर जा रहे थे वो हाजरा उनके पीछे दौड़ती हुई आई और बड़े कातर स्वर में अपने पति से कहा, मेरे पास बस थोड़ी सी रोटी है, पानी खत्म होने वाला है, साथ में दूध पीता बच्चा है और सामने ये चटियल मैदान और पहाड़ों से घिरी हुई वादी है, जंगली जानवर चारों ओर घूम रहें हैं और आप हमें छोड़कर वापस जा रहें हैं? इब्राहीम ऊंटनी पर सवाल होकर लौट रहे थे, उन्होंनें पत्नी के सवाल पर मौन धारण कर लिया. निराश हाजरा वापस लौट आयीं और इब्राहीम उन्हें छोड़कर वहां से चले गये. इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा तथा अपने दूध पीते बच्चे इस्माइल को जिस जगह पर छोड़ा था उसको लेकर भी यहूदी और इस्लामिक मान्यता में बड़ा मतभेद है. तौरात कहती है कि हाजरा और इस्माइल को फारान के पहाड़ों में छोड़ा गया था. यहूदी और ईसाई विद्वानों के अनुसार फारान का इलाका सीना के रेगिस्तान के पास है. इधर कुरान कहता है कि इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा और इस्माइल को काबे के पास यानि मक्के में बसाया था. चूँकि मुस्लिम जगत ये मानता हैं कि हाजरा और इस्माइल को इब्राहीम ने मक्के में छोड़ा था इसलिये हम आलेख माला को इसी मान्यता पर आगे बढायेंगें. जब रात हुई तो बीबी हाजरा बड़ी परेशान हुईं क्योंकि पास में न खाने को कुछ था न पीने को. जंगली जानवरों की ओर से लगातार हमले का खतरा बना हुआ था और उन जानवरों की आवाजों से बच्चा डर कर न सो रहा था न ही हाजरा को सोने दे रहा था. सुबह हुई तो भूख और प्यास से दोनों की हालत खराब. अब हाजरा के पास बचा सारा पानी खत्म हो गया और उनका दूध-पीता बच्चा इस्माईल प्यास से तड़पने लगा. माँ उठ खड़ी हुई, चारों ओर देखा. कहीं से भी पानी मिलने की गुंजाईश न देख कर वो पास के एक पहाड़ सफा पर चढ़ गईं पर वहां पानी न मिला तो वो एक वादी में उतर गईं और भागती हुई वहां से एक दूसरी पहाड़ी मरवा पर चढ़ गई ताकि वहां कोई पानी का सोता मिल सके मगर पानी वहां भी न था. इस क्रम में उन्होंने सात बार दोनों पहाड़ी के दरम्यान चक्कर लगा लिये. (आज भी जब मुस्लिम जब हज करने जातें हैं तो हाजरा के इन्हीं चक्करों की याद में सात दफ़ा सफा और मरवा पहाड़ी के बीच चक्कर लगातें हैं) मुस्लिम कथाएं कहतीं हैं कि बुरी तरह थक के जब हाजरा मरवा पहाड़ी से उतर रहीं थीं तो उन्हें अपने बेटे के पैरों के पास पानी का एक चश्मा बहता नज़र आया जिसे एक फ़रिश्ते जिब्रील ने अपने परों (पंखों) से खोदा था. ये पानी ही आज आबे-जमजम नाम से मशहूर है. हर हाजी इसका सेवन जरूर करता है.

(पानी वाली कथा में भी इस्लामिक और यहूदी मान्यता में विभेद है. तौरात के अनुसार मश्क का पानी ख़त्म होने के बाद जब हाजरा बैरसबा के इलाके में भटक रही थी तब उसने देखा कि उसका बच्चा प्यास से तड़प रहा है तब उसने अपने बेटे को किसी झाड़ी के किनारे डाल दिया और खुद वहां से दूर चली गई ताकि प्यास से तड़प-तड़प कर अपने बच्चे को मरता हुआ न देख सके. वो बेचारी वहां दहाड़े मार-मार का रो रही थी तभी एक फ़रिश्ता प्रकट हो गया और उसने दोनों को एक कुआँ दिखाया. हाजरा ने बेटे को पानी पिलाया और वहीं उसकी परवरिश शुरू कर दी).

पानी मिला तो फिर दोनों माँ-बेटे वहीं आबाद हो गये. इसी क्रम में यमन से निकला जुरहम नाम का एक कबीला पानी की तलाश में भटक रहा था. जब ये कबीला मक्के के पास पहुँचा तो उन्होंनें वहां कुछ पक्षी उड़ते देखे. रेगिस्तानी इलाकों में पक्षियों के उड़ने का अर्थ है कि आसपास कहीं पानी मौजूद है. वो लोग बड़े अचम्भित हुए कि इन इलाकों में तो कभी कोई जल-स्रोत नहीं था फिर अचानक ये परिंदे यहाँ कैसे उड़ रहे हैं और फिर वो उन पक्षियों की निशानदेही करते हुए उस जगह तक पहुँच गये जहाँ जमजम का कुआँ जाहिर हुआ था. वहां पहुँचे तो देखा कि वहां एक बूढी महिला अपने एक बेटे के साथ हैं. वो वहां आयें और आकर हाजरा से कहा कि हमारा ये कबीला यमन से चला है, कई महीनों से पानी की तलाश में निकला हुआ है. अब हमारी हालत पस्त है इसलिये अगर आप हमें अनुमति दें तो हम यहाँ आबाद हो जायें. हाजरा ने उनको ये कहते हुए जमजम के पास आबाद होने की इजाजत दी कि पानी पर मिल्कियत आपलोगों की नहीं बल्कि मेरी, मेरे बेटे की और हमारी आने वाली नस्ल की होगा और पानी इस्तेमाल करने के एवज में आप हमें कुछ मुआवजा भी देंगे. जो लोग इस्लाम पूर्व अरब को जाहिल कहतें हैं, उपरोक्त घटना उनके झूठे दावों का मुंहतोड़ जबाब है. जुरहम कबीले में सैकड़ों लोग रहे होंगें और इधर एक अकेली बूढी औरत अपने छोटे बेटे के साथ थी. जुरहम कबीले वाले चाहते तो उन्हें वहां से मारकर भगा देते और पानी पर कब्ज़ा कर लेते पर इसके विपरीत उन्होंने जो सभ्य आचरण प्रदर्शित किया उसकी मिसाल अन्यत्र मिलनी मुश्किल है. खैर, जुरहम कबीला वहां आबाद हुआ फिर उसी कबीले के एक लड़की के साथ इस्माइल का विवाह हुआ. बाद में इस्माइल ने जब दूसरा विवाह किया तो उसके लिये भी उन्होंने जुरहम कबीले से ही लड़की ली. यानि इस्माइल की दोनों ही पत्नियाँ यमन के कबीले जुरहम से थी. इस्लामिक इतिहासकार तबरी ने अपने इतिहास ग्रन्थ तारीखे-तबरी में बताया है कि इस्माइल की दूसरी पत्नी जुरहम कबीले के सरदार मजाज़-बिन-अम्र की बेटी थी जिससे उन्हें 12 बेटे हुए थी. इन्हीं के बारह बेटों से जो खानदान आगे बढ़ा वो मुस्तारेबा-अरब कहलाये. इसी वंश में पैगम्बरे-इस्लाम मुहम्मद साहब भी पैदा हुये. यानि आप इस्माइल वंशी होने के चलते मुस्तारेबा-अरब थे. मुस्तारेबा का अर्थ है कि वो लोग जो मूल अरब नहीं थे और जिन्होनें दूसरों के संसर्ग से अरबी सीखी. उपरोक्त तथ्य हम हिन्दुस्तान के लोगों के लिये इसलिये तवज्जो-तलब है क्योंकि यहाँ हम हिन्दुओं के पूर्वजों के बारे में बड़ा शोर बरपा किया जाता है कि तुम लोग तो भारत के मूल निवासी हो हीं नहीं क्योंकि तेरे पूर्वज तो कहीं कैश्पियन सागर या मध्य-पूर्व से आने वाले प्रवासी थे जिन्होंने यहाँ कब्ज़ा कर लिया था. आर्य-द्रविड़ मिथक के पर्दाफ़ाश करने वाले लोग इस जानकारी का समुचित उपयोग कर सकतें हैं.

~ अभिजीत
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