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बरबस उतारने लगे, नाग असर जहर का। कंगन कलाई की, पूछती भाव खँजर का। ज़िंदगी! मैंने देखी, बार- बार कई बार, पुजारी अमन के, पर नोचते कबूतर का। ...

Saturday 30 November 2013

हिंदुस्तानी तहजीब औरैर भारतीय मुसुसलमान

Avz, Muzaffarpuri

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हिंदुस्तानी  तहजीब औरैर भारतीय मुसुसलमान
                      वह दीने-हिजाजी का बेबाक बेड़ा । निशां जिसका अक्साए-आलम में पहुँचा।।
                       मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका, न अम्मां में ठटका, न कुल्जम में झिझका।।
                      किये पै सिपर जिसने सातों समंदर। वह डूबा दहाने में गंगा के आकर।।
अर्थात्, अरब देश का वह निडर बेड़ा, जिसकी ध्वजा विश्वभर में फहरा चुकी थी, किसी प्रकार का भय जिसका मार्ग न रोक सका था, जो अरब और बलूचिस्तान की मध्य वाली अम्मान की खाड़ी में भी नहीं रुका था और लालसागर में भी नहींझिझका था, जिसने सातों समंदर अपनी ढ़ाल के नीचे कर लिये थे, वह श्रीगंगा जी के दहाने में आकर डूब गया था।
                 मौलाना अल्ताफ हाली की इन पंक्तियों को पढ़ने से ये लगेगा कि वह इस्लाम जिसने सारी दुनिया पर अपनी विजय पताका फहराई थी वह भारत में आकर पराजित हो गया। हाली की इन पंक्तियों पर लोग सवाल खड़े कर सकते है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की भारी तादाद है, जो अरब और मध्यपूर्व के दर्जनों मुस्लिम देशों की कुल आबादीसे भी ज्यादा है, यानि आबादी के लिहाज से तो इस्लाम सबसे ज्यादा इस महाद्वीप में ही फैला तो फिर इस्लाम यहां पराजित कैसे हुआ? मौलानी हाली की लिखी इन पंक्तियों का अर्थ क्या है?इसका जबाब भारत पर आक्रमणकारी के रुप में आये मुस्लिम और इस देश की सर्वसाधारण जनता जो इन विदेशियों केकारण इस्लाम में दीक्षित हो गई थी, के आचार-व्यवहार, रहन-सहन,परंपरा और संस्कृति का भारतीय हिंदू जीवन के साथ एकरुपता दे देती है। अरब और दूसरे मध्य एशियाई देशों से आये हमलावरों और सूफी संतों ने यहां के सामान्य जनमानस की पूजा-पद्धति को बदलने में तो कामयाबी हासिल कर दी पर इनका दिल न जीत सके और न ही पूरी तरह उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों को अरबी सभ्यता के अनुरुप बना सके। दूसरे शब्दों में कहें तो अरब की सरजमीं से उठे इस्लाम मत में इनका मतांतरण तो हुआ पर अरब संस्कृति में आत्मसातीकरण न हुआ। इतना ही नहीं आक्रमणकारियों में से जो भारत में रह गये और जो उनके माध्यम से इस्लाम में दीक्षित हुये वो भी हिंदू संस्कृति के रंग में सराबोर हो गये। इतने की हिंदुओं के लिये अमृततुल्य गंगा जल को मुसलमान भी अपनी नसों में धुलता हुआ महसूस करने लगे। राही मासूम रजा की ‘गंगा और महादेव‘ शीर्षक से लिखी पंक्तियां इसी बात को तो बयां कर रही हैः-
                ‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है, मुझको कत्ल करो और मेरे धर में आग लगा दो।
                 लेकिन मेरी रग-2 में गंगा का पानी दौड़ रहा है, मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंको।
                 और उस योगी से कह दो महादेव, अब इस गंगा को वापस ले लो।
                 ये जलील तुर्कों के बदन में गढ़ा गया, लहू बनकर दौड़ रही है।।
मुसलमान जब भारत आये यहां की मूत्र्तिपूजा की चर्चे उसके मन में थे, इसी आधार पर भारत को वो जाहिलों का मुल्क समझ रहे थे पर यहां आने के बाद उन्हें पता लगा कि यहां के लोगों को जो तौहीद वो सिखाने आये हैं वो तो यहां तब से है जब दुनिया की बाकी सम्यतायें नींद में थी। यहां आकर उन्हें लगा कि जिन भारतीयों को ये हेय समझतें हैं वो तो ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में उनसे मीलों आगें हैं। बगदाद के खलीफाओं ने अपने दरबार में कई हिंदू विद्वानों को बुलाकर सम्मान दिया था तथा उनकी मदद से संस्कृत के कई ग्रंथों का अनुवाद अरबी और फारसी में करवाये थे। मध्य एशिया के बर्बर हमलावर महमूद गजनवी के साथ आये विद्वान विद्वान अलबरुनी ने कश्मीर में संस्कृत सीखी थी, हिंदू धर्मशास्त्रों का
अध्ययन किया था और इसके पश्चात् उसने एक किताब लिखी थी जिसमें उसने भारत और भारत के निवासियों की बड़ी प्रशंसा की है। आक्रमणकारी अरब और मध्य एशियाई थे, इस्लाम का प्रचार उनके अंदर जुनून की तरह छाया हुआ था, गैर-मुस्लिमों और बिशेषकर वो जो अहले-किताब की श्रेणी में नहीं आते, के लिये उनके मन में गहरी नफरत थी पर ये सारी चीजें मिलकर भी हिंदुत्व की सर्वसमावेशी शक्ति के आगे नहीं टिक सकी। उनका दैनिक नित्य कर्म, बात-व्यवहार, आचार सबकुछ हिंदुस्तानी तहजीब के ताबे हो गई। चिश्तिया संप्रदाय के महान सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने तो ये तक कहा कि, मीसाक के रोज अल्लाह मुझसे हिंदी जबान में हमकलाम हुये। जब मुसलमान भारत आये और यहां आकर राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर जैसे महापुरुषों की गाथायें पढ़ी तथा यहां के जनमानस में उनका मकाम देखा तब उन्हें अपने नबी करीम (सल्ल0) की मुबारक जुबान से निकले इस अल्फाज कि ‘हिंद से मुझे वलियों की खूश्बू आती है‘ का मतलब समझआया।
             जैसे-जैसे वक्त गुजारता गया ,शक, हूण, यवन, पारसी, आदि समुदायों की तरह इस विदेशी मुसलमान भी पूरी तरह यहीं के होकर रह गये थे। विशाल और सर्वसमावेशी और सबको आत्मसात करने वाली हिंदुस्तानी संस्कृति ने इस्लाम के प्रचारकों का हृदय बदलकर रख दिया था। बर्बरता और असहिष्णुता हिंदुस्तान की सर्वग्राह्य संस्कृति में विलीन में हो गया।
          एक या दो नहीं बल्कि सैकड़ों मिसालें हैं जो भारतीय मुसलमानो और आक्रांता के रुप में आये मुसलमानों के हिंदुस्तानी तहजीब से जुड़ जाने और उनके हृदय परिवत्र्तन का गवाह है। मुगल बादशाहों के काफी पहले यानि इस्लाम के भारत में आगमन के आरंभिक काल से आरंभ हुआ यह पविवत्र्तन बहादुरशाह जफर के काल तक पूरी तरह परवान चढ़ गया था। गाय  को अवध्या मानने की वेदकालीन परंपरा का सम्मान अपने पुत्र हूमायूँ को दी गई नसीहत में बाबर ने और अंग्रजों से अपने वतन को मुक्त कराने को कमर कस चुके बहादुरशाह जफर ने भी किया था जब उन्होंनें बकरीद के अवसर पर गोहत्यारों के लिये मृत्युदंड की धोषणा की थी। इतिहास में बहुत कम हिंदू राजा होंगें जिन्होंनें गोहत्यारे के लिये ऐसी कठोर सजा का
प्रावधान किया हो।
* अलबरुनी को संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान था जो उन्होंनें यहां के ब्राह्मणों से सिखा था। अलबरुनी ने कई संस्कृत ग्रंथों का भारसी भाषा में अनुवाद किया था।
* फिरोज तुगलक ने जब अमरकोट पर आक्रमण किया था जब वहां के एक पुस्तकालय में उसे हिंदू दर्शन शास्त्रों के ऊपर संस्कृत में लिखी कुछ पुस्तके मिली थी। उसने अपने दौर के विद्वान इजुद्दीन धलीदखानी को इन किताबों का फारसी में अनुवाद करने का आदेश दिया और इनका नाम रखा दलायत-ए-फिरोजशाही।
* सिंकंदर लोदी ने अपने शान काल में भारतीय आयुर्वेद पर लिखी एक किताब का अनुवाद तिब्बे-सिंकंदरी नाम से फारसी में फरमाया था।
* होली के अवसर पर हास्य कला का प्रदर्शन अपने देश में प्राचीन काल से होता आ रहा है। मिर्जा संगीन बेग ने अपनी पुस्तक सैर-उल-मजाजिल में लिखा है कि बहादुर शाह जफर अपने महल के छत पर इन हास्य काव्य सम्मेलनों का आयोजन करवाते थे तथा उसमें से सर्वश्रेष्ठ टोली को सम्मानित किया करते थे। अवध के नबाब वाजिद अली शाह के समय तो होली का उत्सव तेरह दिन तक मनाया जाता था।
* इस तहजीब के साथ एकाकार हो जाने वालों में सबसे पहला नाम अमीर खुसरो का है। अमीर खुसरो ने खुद को हिंदुस्तानी तहजीब के साथ एकरस कर लिया था। 1253 ईसवी में उत्तर प्रदेश के एटा में जन्मे खुसरो पितृ पक्ष से तुर्क और मातृपक्ष से हिंदी थे। भारत की भाषा, बोली, संगीत, प्राकृतिक सौंदर्य सबकुछ खुसरो का मन मोहता था। उनका काव्य भारत के बिशेषताओं के किस्से सुनाता है। अपनी पुस्तक आशिका में उन्होंनें लिखा कि भारत एक ऐसा मुल्क है जिससे वह मुहब्ब्त करता है, जो इस्लाम का गौरव है, जहां शरीयत का सम्मान है और जहां वह बेहद सुरक्षित है। खुसरो ने भारतभूमि को धरती का स्वर्ग कहा तथा इसको साबित करने के लिये सात तर्क दिये। यहां तक खुरासान पर भारत की श्रेष्ठता साबित करने के लिये भी खुसरो ने 10 कारण बताये। भारतीय संगीत के बारे में उन्होंनें कहा था, यहां का संगीत मनुष्यों को ही नहीं, पशुओं तक को प्रभावित कर लेता है। भारतीय संगीत से हरिण कृत्रिम निद्रा में निमग्न होकर शिकारी का शिकार बन
जातें हैं। यदि कोई अरब संगीत से भारतीय संगीत की तुलना करे तो मैं कहूँगा कि संगीत के सहारे यात्रा करने वाले ऊँट को चलने का तो होश रहता है, परंतु भारतीय संगीत द्वारा मोहित हरिण तो सर्वथा चेतनाहीन हो जातें हैं। हिंदी से खुसरो को बेपनाह मुहब्बत थी जिसका इजहार फारसी भाषा में लिखे अपने एक शेर में उन्होंनें किया हैः-
                    चु मन तूतिए-हिन्दम, अर रास्त पुसी।
                    जे मन हिंदुई पुर्स, ता नग्ज गोयम।।
अर्थात्, मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिंदी में पूछो, जिससे कि मैं तुमको अनुपम बातें बता सकूं।
* बहमनी राज्य के बीजापुर में आदिलशाही वंश का शासन था। इसी वंश में इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय भी हुये थे जिन्हें भारतीय संगीत में निपुणता हासिल थी। भारतीय संगीत पर उनके द्वारा लिखा गया एक काव्य संग्रह ‘नवरस‘ नाम से विख्यात है, दक्षिण भारत के होते हुये भी उन्होंनें इसे ब्रजभाषा में लिखा। यह पुस्तक आज भी भारतीय संगीत के ऊपर लिखी गई बेहतरीन पुस्तकों में शुमार होती है। इसी वंश के शासक अली आदिलशाह ने हिंदू देवी सरस्वती और देवता गणेश को समर्पित भक्ति के कई पद लिखे थे। जब उस जमाने के मुल्ला-मौलवियों ने उसके इस काम को कुफ्र बताया तो उसने जबाब दिया कि इन देवी-देवताओं की प्रेरणा से ही वह ऐसा काव्य लिखने में सक्षम हो सकें है। इस वंश के शासक शाह मीरानजी ने अपनी कई रचनायें भारतीय तहजीब को जेहन में रखकर की। वो अपनी भाषा हिंदी बताते हुये कहते थे
कि मेरी रचनायें उन लोगों के लिये है जो अरबी-फारसी नहीं जानते। मीरानजी के पुत्र बुरहानउद्दीन जानम साहब अपनी रचनाओं में हिंदी छंदों का प्रयोग करते थे।
* गोलकुंडा में शासन करने वाले कुतुबशाही वंश के 5वें बादशाह कुली कुतुबशाह 1580 में सिंहासन पर बैठे थे। कुली कुतुब उर्दू के बहुत बड़े लेखक थे। उनकी रचनाओं में हिंदुस्तानी तहजीब का असर स्पष्ट दिखता है जिसमें उन्होंनें खुलकर दीवाली, होली, बसंत आदि भारतीय त्योहारों का वर्णन किया है।
* एलफिंस्टम के अनुसार जब बहमनी राज्य पर मालवा की मुस्लिम सेना ने हमला किया था तो उनकी सैन्य टुकड़ी में अफगान सैनिकों के साथ-2 राजपूत भी थे वहीं कृष्णदेवराय की तरफ से लड़ने वालों में मुस्लिम भी शामिल थे। बाबर की जंग जब राणा सांगा के साथ हुई थी तो राणा के पक्ष में लड़ने वालों में हसन खां मेवाती और इब्राहीम लोदी का बेटा भी शामिल था।
* मध्यकालीन भारत के मुस्लिम कवि अपने काव्यों में श्रीराम, सीता, गणेश आदि शब्दों का बेखटके प्रयोग करते थे। लगभग 1500 साल पहले हुये मुस्लिम कवि कुतबन ने मृगावती नाम से लिखी अपनी अजेय कृति हिंदी में लिखी था। यह पूर्णरुप से हिंदू मूल का प्रेम काव्य था जिसकी कथा कुछ-2 सीता माता की कथा से साम्यता रखती है। 1424-25 में लिखित जरनामा में हिंदी का प्रयोग किया गया था। मंझन, जायसी, नूर मुहम्मद आदि विद्वान अपनी रचनायें अवधी में करते थे।
* महमूद गजनवी जैसे बर्बर शासक ने अपने सिक्के पर संस्कृत के शब्दों को जगह दी थी।
* मुहम्मद तुगलग बर्बर होने के बाबजूद भारतीय संगीत का प्रेमी था। मुल्ला-मौलवियों के विरोध करने के बाबजूद उसने अपने दरबार में 1200 गायकों को नियुक्त कर रखा था।
* टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली ने बहुत से हिंदू मंदिरों की स्थापना अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम में करवाई थी। उन्होंनें कर्नाटक के नंदनगुंजा में नंजनदेशवरा की मूत्र्ति स्थापित करवाई थी जिसके बाद उस मंदिर का नाम हैदरअली लिंगम् रख दिया गया था।
* कश्मीर के शासक जैनुल आबदीन तो पूरी तरह हिंदुस्तानी तहजीब में रच-बस गये थे। जैनुल ने अपने असहिष्णु पिता के कोप का भाजन बने हिंदुओं को अपना वरदहस्त दिया और कश्मीर छोड़कर जा चुके हिंदुओं को वापस बुलबाकर उन्हें फिर से कश्मीर में बसाया था। जैनुल ने तोड़ें गये मंदिरों का जीर्णोधार कराया था और ब्राह्मणों को अभय देते हुये उन्हें उनके रिवाजों के पालन की पूरी छूट दे दी थी। उसने पूरी तरह गोवध का निषेण किया था। वो खुद हिंदू पर्व-त्योहारों और उत्सवों में बड़े आनंद से शरीक होतें था। झेलम उत्सव को उन्होनें फिर से शुरु करवाया था। सारी जिंदगी उन्होंनें केवल एक ही शादी की और कभी किसी पराई स्त्री की तरफ नजर तक उठा कर नहीं देखा। मांस और मदिरा दोनों से उन्हें परहेज था। खाली वक्त में वो नीलमत पुराण, दशावतार और दूसरे अन्य हिंदू ग्रंथों का अध्ययन करते था। अपने दरबार में श्रीभट्ट नाम के एक हिंदू वैध को रखा हुआ था जो उनका निजी चिकित्सक भी था। राजतरंगिणी और महाभारत का उन्होंनें फारसी भाषा में अनुवाद करवाया और कल्हण रचित राजतरंगिणी को विस्तार दिलवाई। मुल्ला अहमद नाम के मुस्लिम विद्वान से उन्होंनें महाभारत, दशावतार, राजतरंगिणी आदि ग्रंथों का फारसी रुपांतरण कराया था। अपनी जीवनी यदु भट्ट नाम के हिंदू से लिखवाई जो जैन प्रकाश नाम से मशहूर है।
* खान देश के शासक महमूद बीगड़ के शासन में उच्चतम पदों पर हिंदू नियुक्त थे। एक ब्राह्मण मलिक गोपी उसका मुख्यमंत्री था। बीगड़ ने अपने राज्य में संस्कृत और इसके विद्वानों को संरक्षण दिया था। इसी के वंश में मुजफ्फरशाह द्वितीय भी थे। उनके दरबार में बाई झाऊ नाक की एक नर्तकी थी जो सरस्वती नृत्य के लिये मशहूर थी। उसके अनुरोध पर सुल्तान ने पूर्ण स्वर्णनिर्मित और बहुमूल्य आभूषण जड़ित हंस बनबाया था जो माँ सरस्वती का वाहन है।
* हिंदुस्तानी तहजीब ने बंगाल के मुसलमान शासकों को भी प्रभावित किया। गौड़ के सुल्तान नुसरात ने महाभारत का अनुवाद बंगला में करवाया था। कृतिवास नामक विद्वान को अपने राज्य में पूरा संरक्षण देकर उसने उसे रामायण का बंगाली अनुवाद करने का हुक्म दिया था। बंगाल के एक दूसरे मुसलमान शासक सुल्तान हुसैन शाह ने भी महाभारत का बांग्ला में अनुवाद कबिंदु परेश्वर से करवाया।
* मशहूर सूफी संत बाबा फरीद हिंदी में कलाम करते थे और पंजाबी पर भी उन्हें महारत थी। पंजीबी साहित्य को उनकी कई अमूल्य देनें हैं। सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में उनके पदों को स्थान दिया गया।
Û शेख निजामुद्दीन औलिया को हिंदी गीतों में बड़ा आनंद मिलता था, शमा में वो हिंदी गीतों को सुनना पसंद करतें थे। हिंदू गीतों के बोल पर ये कई बार झूमने लग जाते थे। कहा जाता है कि एक बार फारसी गीत इनपर कोई असर नहीं डाल पा रही थी तो कव्वाल हसन मैसांदी ने हिंदी में गाना शुरु किया जिसे सुनकर वो भावविभोर हो गये। शेख निजामुद्दीन हिंदू योगियों से भी संपर्क रखते थे और इन योगियों से ही इन्होंनें ध्यान आदि की विधि सीखी थी।
* हिंदी से मुहब्ब्त करने वाले सूफी संतों में शेख गेसूदराज का नाम भी प्रमुख है। एक बार उनसे किसी ने उनसे पूछा कि फारसी के गीत, गजल की अपेक्षा लोग हिंदी को क्यों प्रमुखता देतें हैं? इस पर गेसूदराज ने फर्माया, इनमें से प्रत्येक अपना बिशिष्ट गुण रखता है पर हिंदी मधुर और हृदयग्राही है जिसमें मृदुलता, कोमलता तथा सुझावात्मक तीनों गुण एक साथ है जिसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है।
* बाबा बुल्लेशाह का नाम भी हिंदी से मुहब्बत करने वालों में शुमार है।
* सूफी मत का एक उपखंड सत्तारी ने हिंदू रहस्यवाद तथा योग को अपना लिया था। इस मत के संत जंगलों में चले जाते थे तथा वहां हिंदू संतों की भांति कंद, मूल खाकर गुजारा करते थे और उनकी ही तरह हठयोग करते थे।
* मुसलमानों ने ईश्वर का नाम जपने के लिये माला का इस्तेमाल हिंदू और बौद्धों से सीखी थी।
* अकबर के काल में जन्मे अब्दुर्ररहीम खानखाना भारतीय तहजीब को प्रस्तुत करने वालों में एक ऊँचा स्थान रखतें हैं। मुसलमान होते हुये भी अपने काव्य में उन्होंनें महाभारत, रामायाण, पुराण और गीता जैसे गं्रथों के कथानकों का प्रयोग किया है। हिंदू देवी-देवताओं और भारतीय परंपराओं को भी प्रमुखता से इन्होंनें अपने काव्य में स्थान दिया है। रहीम के काव्य का आज भी हिंदू बड़े भक्ति-भाव से पारायण करतें हैं। श्रीकृष्ण के लिये लिखे इनके पद लोगों को भाव विभोर कर देतें हैं।
* सोलहवीं सदी में दिल्ली के एक समृद्ध पठान परिवार में जन्में रसखान का सारा जीवन भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित था। गोविंदविट्ठल दास जी ने उन्हें कृष्णभक्ति की दीक्षा दी थी। रसखान इस्लाम धर्म में पैदा हुये थे जहां पुर्नजन्म की अवधारणा नहीं हैं पर वो यही कामना करते थे कि अगले जन्म उनका कृष्ण चरणों में हो। मथुरा के यमुनातट पर इनकी समाधि है। रसखान के लिखे पद श्रीकृष्ण की भक्तिभावना से ओत-प्रोत हैः-
       मानस हौं तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चैरों नित नंद की धेनु मंझारन। पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन। जो खग हौं तो बसैरो करो,नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।
एक दूसरे पद में उन्होंनें लिखा:-
      मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी। ओढ़ी पीतंबरी लै लकुटी , बन गोधन ग्वारन संग फिरौगी। भावतो मोहि मेरो रसखान, सो तेरे कहे सब स्वांग भरौंगी। या मुरली मुरलीधर की , अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।
* राजस्थान के अलवर में जन्में संत लालदास भी मुसलमान थे पर हरि भक्ति में वो लीन हो गये थे। गांव-2 धूम कर हरि भक्ति का प्रचार करते थे। उन्होंनें लालपंथी संप्रदाय की नींव डाली थी।
* औरंगजेब को मुगल बादशाहों में सबसे अधिक धर्मांध माना जाता है पर उसके वक्त में हिंदुस्तानी तहजीब अपनाने वाले और उससे मुहब्बत करने वाले उसके अपने धर में मौजूद थे। उसके भाई दारा शिकोह हिंदू विद्वानों की संगति में रहते थे, उन्हें हिंदू ग्रंथों के अध्ययन में बड़ा आनंद मिलता था। 52 उपनिषदों का अनुवाद उन्होंनें सिर्रे-अकबर नाम से किया था तथा मजमा-अल-बहरीन नामक अपनी किताब में वैदिक धर्म और इस्लाम में समन्वय का रास्ता बताया था। औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसा और भतीजी ताज बीबी के कृष्णभक्ति ने तो दिल्ली के मुसलमानों के बीच कोहराम मचा दिया था। ताजबीबी के गीतों में तो मीराबाई के पदों की झलक दिखती थी। ताजबीबी का बड़ा मशहूर पद है:-
            छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला, बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूँ देवतों से न्यारा है।
            नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पे, हूँ तो मुगलानी हिंदुआनी बन रहूँगी मैं।
* कृष्णभक्त मुसलमानों में कारे खाँ का नाम भी प्रमुखता से आता है। श्रीकृष्ण के मंदिर की दर पर भक्तिपद गाते-2 वो भाव-विभोर हो जाते थे और उनकी आँखो से अश्रु धारा बहने लगती थी।
* गुरु नानक के आरंभिक शिष्यों में भाई मरदाना का नाम प्रमुखता से आता है, जो एक मुसलमान थे। मरदाना हर वक्त उनके साथ रहते थे और रकाब बजाया करते थे।
* ये हिंदुस्तानी तहजीब का ही असर है कि एक मुसलमान होते हुये भी नजीर अकबराबादी ने होली पर ग्यारह नज्में, दीपावली पर दो, राखी पर एक और कन्हैया पर तो कई-2 नजमें लिखी है। कन्हैया जी शीर्षक से लिखी अपनी नज्म में तो नजीर ने पूरी कृष्ण कथा उतार कर रख दी। इस नज्म की कुछ पंक्तियां:-
है रीत जनम का यूँ होती जिस गर में बाला होता है, उस मंडल में हर मन भीतर सुख चैन दोबाला होता है।
सब बात तबहा की भोले हैं जब भोला भाला होता है, आनंद मदीले बाजत है जब नित भवन उजाला होता है।
यूँ नेक पिचहत्तर लेते हैं इस दुनिया में संसार जनम, पर उनके और ही लछछन है जब लेतें हैं अवतार जनम।।
होली पर नजीर की लेखनी कुछ यूं चली:-
           जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंद गांव बसैयन में,
           नर नारी को आनंद हुये खुशवक्ती छोड़ी छैयन में।
           होरी खेले हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी
           यह भीगी सर ये पांव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।
* उर्दू के प्रख्यात शायर हसरत मोहानी जब हज करके लौटते थे तो कृष्ण दरबार में हाजिरी लगाने जरुर जाते थे। उनकी ये पंक्तियां कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति भावना बता रही हैः-
           कबूल हो दर पर तेरे हसरत की हाजिरी
            कहतें हैं करम आशिकों पर आपका है खास।
* भागलपुर दंगे के बाद हिंद की तहजीब पर अंगुली उठाने वाले एक विदेशी चैनल की प्रतिक्रिया ने डाॅ0 अब्दुल अहद रहबर को इतना व्यथित कर दिया कि उन्होंनें हिंदुस्तानी तहजीब की प्रतिष्ठा की खातिर भगवान श्रीराम पर शोध करने का इरादा कर लिया और रहबर रामायण की रचना कर डाली। श्रीराम के ऊपर लिखने के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण और भगवान बुद्ध पर भी लिखने की शुरुआत की है। रहबर भगवान राम को मानवता, दया, करुणा का प्रतीक मानतें हैं।
* उत्तरप्रदेश शाहजहांपुर के एक मुस्लिम विद्वान मौलाना बशीरउद्दीन कादरी को भगवत् गीता कंठस्थ थी और संस्कृत पर महारत हासिल थी। इतनी महारत कि इन्होंनें पवित्र कुरान का संस्कृत में अनुवाद तक किया था।
* हिंदुस्तान के अजीम संगीतकार नौशाद अली मुसलमान थे लेकिन हिंदू देवी देवताओं पर लिखे गीतों पर उनकी संगीत ऐसा शमां बांधता है कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाया करते हैं। फिल्म बैजू बाबरा के गीत ‘मन तरपत हरि दर्शन‘, मुगले-आजम का ‘मोहे पनधट पर नंदलाल छेड़ गयो रे‘ कोहिनूर फिल्म का मधुबन में राधिका नाचे रे‘ आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।

मजहब बदला : नही  बदली तहजीब

इस बिषय पर शोध करने वाले एक विद्वान लेखक डाक्टर टाईटस के अनुसार भारत जैसे देश में जहां पर मुसलमानों का बहुसंख्यक भाग हिंदुओं से मतांतरित होकर बना था, ने अब भी हिंदू बातों को धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में नहीं छोड़ा था। मूर्तिपूजक वातावरण जिससे वह धिरा हुआ था, का उसपर बहुत दबाब था, केवल पड़ोसी ही नहीं बल्कि उसके बहुत से संबंधी अब भी हिंदू ही थे। इसमें बहुत कम आश्चर्य है कि गांव की देवी की पहले की भांति अब भी पूजा होती थी और आस्तिकतापूर्ण पुराने विचार अब भी चलते रहे। ब्राह्मण पुजारियों को अब भी नियुक्त किया जाता रहा और हिंदू त्यौहार भी उसी तरह मनाये जाते रहे।
            इसी की पुष्टि श्री एम0 मुजीब ने अपनी पुस्तक ‘दी इडियन मुस्लिम‘ में कई उदाहरण देते हुये किया है और विस्तार से बताया है कि धर्म बदलने के बाबजूद मुसलमानों ने अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों में हिंदू तहजीब को अपनाये रखा। उन्होंनें लिखा है-‘ करनाल में 1865 तक बहुत से मुस्लिम किसान अपने पुराने गांवों के देवताओं की पूजा करते थे और साथ ही मुसलमान होने के कारण कलमा भी पढ़ते थे। इसी तरह अलवर और भरतपुर के मेव और मीना मुसलमान तो हो गये थे पर उनके नाम पूर्णरुपेण हिंदू होते थे और अपने नाम के साथ वो खान लगाते थे। ये लोग दीपावली, दुर्गापूजा, जन्माष्टमी तो मनाते ही थे साथ ही कुएं की खुदाई के वक्त एक चबूतरे पर हनुमान की पूजा करते थे। उनके पूजा के स्थान पंच, पीर, मोमिया या चहुंडा थे। मेव भी हिंदुओं की तरह अपने गोत्र में शादी नहीं करते। मीना जाति वाले मुस्लिम भैरो (शिव) तथा हनुमान की पूजा करते थे और (क्षत्रिय हिंदुओं की तरह) कटार से शपथ लेते थे। बंदी राज्य में रहने वाले
परिहार मीना गाय और गोश्त दोनों के गोश्त से परहेज करते थे। रतलाम से लगभग 50 मील दूर जाओरा क्षेत्र में कृषक मुसलमान शादी के समय हिंदू रीति-रिवाज को मानतें हैं, चेचक की देवी की पूजा करतें हैं और शादी के समय तोरण लगातें हैं।
             भारत में शिया समाज कई फिरकों में बंटा हुआ है। इसी में एक इस्माईली खोजा, आगा खाँ के अनुयाई हैं तथा वे अली को बिष्णु का अवतार मानतें हैं और इनकी प्रार्थना में हिंदू तथा इस्लाम दोनों की बातों का सम्मिश्रण होता है। इनके जन्म और मृत्यु के कई संस्कार हिंदुओं से मिलतें हैं। इसी तरह खदराज देवल देवी की आराधना करतें हैं, उनकी मूर्ति की स्थापना करतें हैं तथा आटा, मीठा और गुड़ का भोग लगातें हैं। बिहार के पूर्णियां जिले में हिंदू धर्म के और इस्लाम के निचले वर्गों की विश्वास और मान्यतायें आपस में मिलती है। प्रत्येक गांव में काली का स्थान है जहां काली देवी कर पूजा की जाती है। हरेक मुसलमान के धर के पास ‘खुदा का धर‘ नाम का छोटा सा स्मारक बना होता है जहां पर अल्लाह और काली दोनों के नाम से प्रार्थना की जाती है। शादी के वक्त इन स्ािानों पर भगवती देवी की पूजा की जाती है। ‘देवता महाराज‘ नाम के
देवता हिंदू और मुसलमानों दोनों के आराध्य हैं। पूर्णियां से हटे किशनगंज के बंगाली मुसलमानों की उपजाति में ‘खुदा का धर‘ तथा बसीहारी ‘मां का धर‘ दोनों की पूजा की जाती है।
       पश्चिम बंगाल के उत्तर चैबीस परगना जिले के बारासात और बशीरहाट क्षेत्र में मुबारक गाजी की पूजा की जाती है। इसमें फकीर जंगल में जाकर कुछ स्थान साफ करके एक धेरा बनातें हैं जिसमें महादेव और मंशा देवी की पूजा की जाती है। भारतीय मुसलमानों के विवाह और अन्य मांगलिक उत्सवों पर संपन्न होने वाले रिवाजों में हिंदुस्तानी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। बिहार के वैशाली जिले के वैसे मुस्लिम परिवार जहां उनके परिवार से हर बर्ष कोई न कोई हज या उमरा करने जाता है, की शादी में आज भी सिंदूर प्रथा कायम है। लड़की भले बाद में सिंदूर न लगाये पर विवाह के दिन उसकी मांग में लड़का सिंदूर भरता है। इसी तरह बहुत मुस्लिम परिवारों में मंगल सूत्र पहनाये जाने का भी रिवाज हैं। विवाह के अवसर पर वधू पक्ष की महिलाओं द्वारा भोजन के वक्त वर पक्ष वालों के लिये गाली भरे गीत गाने का रिवाज अगर हिंदुओं में है तो यह परंपरा कई मुस्लिम परिवारों में भी है। बंगाल की अधिकांश मुस्लिम महिलायें सिंदूर लगाती हैं और सुहाग का
प्रतीक शंखा धारण करतीं है। हिंदू विवाह के अन्य कई संस्कार और रिवाज मसलन हल्दी लगाना, न्योतना, मामा का भात, मढ़ा गाड़ना, धर में रंग-रोगन करवाना, तोरण द्वार बनबाना, दूल्हे की आरती की थाली से नजर उतारना लड़की का कंगना, पायल, मंगलसूत्र पहनना, विदाई और बारात आने के वक्त गाना गाना आदि का चलन मुसलमानों में भी उतनी ही प्रमुखता से है। गर्भधारण की स्थिति में मुस्लिम महिलाओं को भी उन निषेधों का पालन करना पड़ता है जिनका पालन सामान्यतया हिंदू महिलाये करतीं हैं। दीपावली के अवसर पर आज भी कई मुस्लिम धरों में कुंवारी लड़कियों द्वारा धरौंदा बनाने तथा द्वार पर दीप जलाने का रिवाज कायम है। बिहार के कई इलाकों में मुस्लिम महिलायें पूरी निष्ठा और पवित्रता से छठ व्रत संपन्न करतीं हैं।
        बंगाल के मुसलमान दुर्गापूजा और शीतला माता (हिंदुओं में चेचक की देवी के रुप में मशहूर) की पूजा में बड़ी निष्ठा और उल्लास से सम्मिलत होते है, बहाबी विचारधारा के प्रचार के कारण इसमें कमी आई है पर आज भी दुर्गापूजा में भाग लेने वाले मुस्लिमों की संख्या बहुत है, इतना ही नहीं शुभ कार्यों के लिये वो ब्राह्मणों से मुर्हूत पूछतें हैं।
      भारत के ग्रामीण इलाकों के मुसलमानों पर (जो अभी कट्टरपंथी विचारों से प्रभावित नहीं हुये हैं) तो हिंदुस्तानी तहजीब का बहुत ज्यादा असर है। महिलायें बच्चों के चेचक होने के बाद सारे विधि-विधान उसी तरह संपादित करतें हैं जैसे आम हिंदू महिलाओं द्वारा किया जाता है मसलन इस दौरान वो भी अपने बच्चों को चमड़े की बनी चीजों से दूर रखती हैं, नीम के पत्ते का झाड़ देतीं हैं और बड़ी माता से चेचक मुक्ति के लिये मन्नतें मांगती हैं।
       मुसलमानों के लिये तीर्थ की नीयत से मक्का मदीना की ही इजाजत है पर तीर्थों की पुनीत परंपरा रखने वाले भारत के मुसलमानों में कई अन्य जगहों की तीर्थयात्रा का चलन है मसलन वो बहराईच में स्थित संत मसूर सालार गाजी की मजार या अजमेर स्थित ख्वाजा गरीबनवाज के मजार समेत सैकड़ो अन्य वलियो और दरवेशों के मजारों की जियारत करने जातें हैं। नबी करीम (सल्ल0) की सुन्नत में केवल दो ईदें (ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अजहा) मनाने की ही अनुमति थी पर भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान श्रीरामनवमी, कृष्णाष्टमी और बुद्धपूर्णिता की तर्ज पर एक और ईद ‘ईद-मिलाद-उल-नबी‘ नाम से मनातें हैं।
       इस्लाम में ये मान्यता है कि गैब की बातें केवल अल्लाह जानता है पर भारतीय तहजीब में आकर यहां के मुसलमान ज्योतिष के माध्यम से भबिष्य जानने में बड़ी रुचि लेतें हैं। कई मुस्लिम परिवारों में तो बिना पंडित या ज्योतिष के सलाह के कोई बड़ा काम शुरु नहीं किया जाता। इतना ही नहीं मुहम्मद तुगलग से लेकर बाबर तक भारतीय ज्योतिष विधा पर बहुत यकीन रखते थे। मुहम्मद बिन तुगलग ने तो अपने दरबार में हिंदू राजाओं की तरह राज-ज्योतषियों को स्थान दे रखा था। बंगाल के मुस्लिम तो विवाह का मुर्हूत पंडितों से पूछकर निकालतें हैे। आज भी भारत के कई गांवो के मुसलमान पुरुष धोती पहनतें हैं जो विशुद्ध हिंदू रिवाज है।
शियाओं के उपखंड खोजा के सिद्धांतों में तो हिदू दर्शन की स्पष्ट छाप दिखाई देती है, ये लोग अली को बिष्णु का अवतार मानतें हैं इनकी कई सारी धार्मिक सिंद्धांत और क्रियायें हिंदुओं से मिलते हैं। झेलम नदी के पश्चिमी तट पर रहने वाली मुस्लिम खोज के लिये तो भगवद्गीता बड़े आदर की किताब है, ये लोग आगा खाँ को ब्रह्मा, बिष्णु और महेश का अवतार मानतें हैं। गुजरात के कच्छ जिले में आबाद मीजोनज शिया गोश्त नहीं खातें हैं, न ही खतना करवातें हैं, अपने वली हजरत इमामशाह को ब्रह्मा का अवतार मानतें हैं।
        मृत संतों की पूजा और मजार पर फूल चढ़ना, लोबान का धूप देना, लंगर का आयोजन करना भारतीय तहजीब के चलते ही इस्लाम में शामिल हो गई है, इस्लाम में इसका कोई विधान नहीं था।

मजहब बदला : नही  बदलीी जाति

भारत के मुसलमानों के बारे में ये कहा जाना जाएज है कि इस्लाम ग्रहण करने से केवल उनकी पूजा पद्धति बदली न उनकी जाति बदली, न रीति-रिवाज बदले और न पूर्वज बदले। जाएज इसलिये है कि आज भी मुसलमान अपनी मजहब तब्दील करने की पूर्व की अपनी जाति के नाम से न केवल जाने जाते हैं बल्कि उनके जीवन-यापन का जरिया भी पूर्ववत्र्ती जातियों के अनुरुप ही है। मसलन मजहब तब्दील करने से पूर्व अगर वो नाई, लोहार या धोबी का काम करते थे तो मजहब बदलने के बाद भी वो उन्हीं कामों में संलग्न हैं। हिंदुस्तानी तहजीब का सबसे बड़ा प्रभाव जो मुसलमानों पर पड़ा वो ये था कि इसके कारण इस्लाम का सबसे प्रमुख भ्रातृत्व भाव सिद्धांत यहां के मुसलमान न अपना सके। यहां के हिंदू, जिन्होनें हिंदू जाति व्यवस्था (जो उस समय भेद का बिषय बन गया था) से निजात पाने के लिये मजहब बदला, इस्लाम में जाकर भी
इससे मुक्त न हो सके। अरब, तुर्क, ईरानी आदि विदेशी मुसलमान जो यहां शासकवर्ग थे, ने अपने शासन की सुविधा के लिये उन्हें इस्लाम में तो अपना लिया पर सामाजिक रुप से न अपना पाये। वो खुद को श्रेष्ठ और मतांतरित भारतीय मुसलमानों को तुच्छ समझते हुये हेय दृष्टि से देखते थे। ऐसे में उनको अपनापन और सहारा उसी समाज से मिला जहां से वो आये थे और इस कारण जाति-व्यवस्था उनके साथ बनी रही।
           नवभारत टाईम्स के 22 जनवरी 1948 के अंक में लिखे अपने एक आलेख (जिसका शीर्षक था मुसलमान समाज भी जातीय समाजों में बंटे हैं) में इन्हीं बातों की पुष्टि करते हुये महरउद्दीन खँा ने लिखा था, ‘मुसलमान भी जातीय समाज में बंठे हैं‘। उसने उन्होंने लिखा-‘बहुत से अन्य धर्माबलंबी यही समझते हैं कि ऊपरी तौर पर मुसलमानों में सिर्फ शिया और सुन्नी दो ही वर्ग हैं। मगर ऐसी बात नहीं है, भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान भी हिंदुओं की भांति कई जातियों में बंटा हुआ है और यह सिर्फ सुन्नियों में ही नहीं है वरन् शियाओं में भी विधमान है। यहां तक कि मुसलमानों में भी जाति का निर्धारण जन्म से ही होता है न कि कर्म से। किसी एक जाति का मुसलमान अपनी जाति बदलने में उतना ही असमर्थ है जितना कि हिंदू अपनी जाति बदलने में। विवाह संबंध भी हिंदुओं की भांति जाति के अंदर ही स्थापित किये जातें हैं।‘
                 ये हिंदुस्तानी तहजीब के सम्मान की ही परंपरा है कि इस्लामिक शिक्षा केंद्र के रुप में सारी दुनिया में मशहूर दारुल उलूम देबबंद ने अपने फतवे में मुसलमानों से कहा, ‘हालांकि इस्लाम एक मुसलमान को चार शादी करने की इजाजत देता है पर इस मुल्क की तहजीब में ऐसा नहीं है इसलिये मुसलमानों को चाहिये कि वो एक शादी पर ही बस करें। इस तरह के एक और फतवे में यहां की तहजीब का सम्मान करते हुये मुसलमानों को गोहत्या से परहेज करने की सलाह दी। भारतीय मुसलमानों पर हिंद की तहजीब का इतना असर है कि आज भी मुसलमान उन धरों में विवाह संबंध करने से परहेज करतें हैं जहां किसी ने दो शादी की होती है। यही नहीं हिंदू तहजीब के असर के कारण दुनिया के बाकी मुस्लिम मुल्कों के मुकाबले भारत में तलाक की दर कम है।
           आज भारत दुनिया में सबसे अधिक सांप्रदायिक दंगों का दाग अपने ऊपर रखने वाला मुल्क है।
हिंदू मुस्लिम रिश्तांे मे जितनी दरारें आज हैं, उतनी पहले कभी न थी। दुनिया के बाकी मुल्कों की तुलना में भारत का मुसलमान आज मुख्यधारा से कटा हुआ है और बाकी समाज से अलग-थलग है। इस मुल्क की तरक्की का राज इसी में पिन्हां है कि इस देश के दो बड़े तबके के बीच सामंजस्य हो। हिंदुस्तानी तहजीब में रंगकर भारत का मुस्लिम समाज यहां के बाकी लोगों के साथ मध्यकाल से ही एकात्म होना शुरु हो गया था पर बीच के कालखंड में अंग्रेज और उसके बाद में यहां के राजनेताओं ने एकात्मता की इस धारा को तोड़ दिया।
                   हिंदुओं और मुसलमानों की बीच एकात्मता की यह धारा फिर ये प्रवाहित हो, इसके लिये
आवश्यक है कि यहां का मुस्लिम समाज हिंदुस्तान की तहजीब के साथ एकात्म होना शुरु करे क्योंकि सारी दुनिया जिस हिंदुस्तानी तहजीब का अनुसरण करने के लिये आज लालायित है वो मुसलमानों की भी उतनी ही है जितनी हिंदुओं की। दुनिया के कई इस्लामी देशों का उदाहरण है जो बतलाती है अपनी तहजीब और परंपराओं से जुड़ना और उसे आत्मसात करना इस्लाम के तालीमों की अवज्ञा नहीं है। खुसरो, जायसी, कुतबन, दारा, रहीम, रसखान, ताजबीबी, जैबुन्निसा, नजीर अकबराबादी और हसरत मोहानी जैसे भारतीय तहजीब से प्रेम करने वालों की संख्या बढ़े और सनातन काल से अपनी तहजीब के कारण सारी दुनिया का सिरमौर बने भारत भक्तों की संख्या बढ़े यही भारत के उज्जवल भबिष्य और आपसी सद्भाव का सर्वश्रेष्ठ रास्ता होगा।

1 comments:

सूबेदार said...

मुसलमान कुछ समझने वाले नहीं कुछ भी करो ये मूसर से ही मानते हैं देखिये न इस्लामिक देश सर्वाधिक अमेरिका खेमे मे है जबकि वह बराबर उनपर मूसर का प्रयोग करता रहता है।