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क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत

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Tuesday 16 May 2017

अरब का इतिहास : अभिजीत

अरब का इतिहास : अभिजीत
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अभिजीत

एशिया महादेश के दक्षिण-पश्चिम में बसे जमीन के एक बड़े टुकड़े को हम अरब प्रायद्वीप नाम से जानतें हैं. अरब नाम की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मान्यतायें हैं. एक मान्यता कहती है कि सीरिया की प्राचीन भाषा के एक शब्द 'अरबत' से यह नाम निःसृत है.'अरबत' शब्द का मतलब होता था मरुभूमि. अरबी भाषा में यही शब्द'रबबत'नाम से नाम आता है जिसका अर्थ है बलुआ भूमि. कुछ मान्यतायें ये भी कहतीं हैं कि संस्कृत के शब्द 'अर्व' से अपभ्रंश होकर यह शब्द बना है. एक मान्यता कहती है कि इसे ब्रह्मा पुत्र भृगु के दूसरे पुत्र महर्षि च्यवन के पुत्र और्व मुनि ने बसाया था, जिनके नाम पर इसका नाम पड़ा. महाभारत के आदि-पर्व में और्व मुनि का कुछ आख्यान मिलता है. यह भूमि भी हिन्द की तरह तीन तरफ से समंदर से घिरा है. पश्चिम की ओर लाल सागर है, जिसके उस तरफ मिस्र और सूडान बसे हुए हैं, पूरब की ओर से इसे फारस और अम्मान की खाड़ी ने घेर रखा है. इसके पूर्वी किनारे पर संयुक्त अरब अमीरात बसा है. फारस की खाड़ी के उस तरफ ईरान हैं जहाँ से अफगानिस्तान के रास्ते भारतीय उपमहाद्वीप का सड़क मार्ग मिलता है. दक्षिण की ओर से हिन्द महासागर, यमन और ओमान ने इसे घेरा हुआ है, इसके उत्तर में ईराक और जॉर्डन की सीमा लगती है तथा उधर के काफी हिस्से को रेगिस्तान ने घेरा हुआ है. इजरायल और फिलीस्तीन इसके उत्तर में अवस्थित हैं. तीन ओर से समुद्रों से घिरे होने के कारण इसे जजीरातुल-अरब कहतें हैं. यह विश्व का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है जिसकी कुल लंबाई लगभग डेढ़ हज़ार मील और चौड़ाई तेरह सौ मील है. पूरे अरब में नदी कहीं भी नहीं है, कई जगह छोटे-छोटे नाले हैं, जिनमें बरसात का पानी बहता है. कर्क रेखा अरब से होकर गुजरती है. यह पूरा भूभाग लगभग रेगिस्तानी है, सिर्फ तायफ़ जैसे एकाध जगहों पर कुछ खेती हुआ करती है, दक्षिण अरब में कुछ नखलिस्तान मिलतें हैं. यमन की तरफ कहीं-कहीं गेहूँ की खेती होती है और जौ ऊपजाया जाता है. फल और सब्जियों के लिये पूरा अरब तायफ़ और लैय्या पर निर्भर है. केवल खजूर है जो पूरे अरब में होती है इसलिये खजूर को अरब की पहचान मानी जाती है, वहां के झंडे पर भी खजूर को स्थान दिया गया है. दुनिया में सबसे अधिक अलग-अलग किस्म की खजूरें अरब में पैदा होती हैं. वहां का भौगोलिक विभाजन अरब को आठ हिस्सों में तकसीम करता है. हिजाज, यमन, हज़रमूत, महरा, बहरीन, नज्द, अहकाफ और अम्मान. अल-हिजाज अरब के पश्चिमी हिस्से में बसा है. मक्का, मदीना, तायफ़, खैबर, उहद, हुनैन, ग़दीरे-ख़ुम और तबूक जैसे इस्लामिक महत्त्व के कई शहर इसी हिस्से में बसे हैं. तायफ की आबोहवा बाकी अरब की तुलना में काफी पसंदीदा मानी जाती है. यहाँ मेवे खूब मिलतें हैं, अरब में इसे जमीन पर स्वर्ग कहा जाता है. हिजाज की सीमायें लाल सागर से छूती हैं. जेद्दाह बंदरगाह भी अरब के इसी हिस्से में है. अरब की प्राचीन जातियों और उनके नगरों के अवशेष इसी हिस्से में मिलतें हैं. कुछ लोगों का ये भी मत है कि दरअसल अरब का मूल नाम हिजाज ही है. अल्ताफ-हुसैन हाली की रचनाओं में ये दिखता भी है, जब वो इस्लाम को दीने-हिजाजी कहते हुए लिखतें हैं, वो दीने-हिजाजी का बेबाक बेड़ा......हिजाज से पूरब की ओर का हिस्सा नज्द कहलाता है जहाँ से इस्लाम का बहाबी मत आरम्भ हुआ था. नज्द का मतलब है ऊँचाई वाली जमीन. करीब 12 लाख वर्गमील में फैले अरब भूमि का लगभग सारा हिस्सा शुष्क पठार और रेगिस्तानी इलाकों से भरा हुआ है. 5 लाख वर्गमील भूमि लगभग मानव-शून्य है. मिट्टी की संरचना के आधार पर अरब भूमि को तीन भागों में तक्सीम किया गया है. उत्तरी अरब सफ़ेद रेत से आच्छादित है, जो नुफूद कहलाता है फिर नूफूद से लेकर सूदूर दक्षिण तक का भाग अल-दहना, अल-धना या अल-रब्बुल-खाली नाम से मशहूर है. ये पूरा क्षेत्र लाल रेत से पटा है जो लगभग ढ़ाई लाख वर्गमील में विस्तारित है. तीसरा हिस्सा भूरे और शुष्क पठारों का इलाका है जिसे अल-हरा कहा जाता है. पूरे अरब में वर्ष भर गर्म हवायें चलतीं रहतीं हैं, ये हवायें लू की शक्ल में होतीं हैं. अरब के कई इलाकों में तो ऐसी लू चलती हैं जिसका एक थपेड़ा भी किसी की जान ले सकता है. अरब इन मौत देने वाली हवाओं को बादे-समूम या जुहैरिया हवा कहतें हैं. हिजाज के इलाके में तीन-तीन, चार-चार साल तक पानी नहीं बरसता. तहामा के इलाके में जब लू के थपेरे चलतें हैं तब ऊंट अपने चारों पैरों को जोड़ कर उसके अंदर अपने मालिक को छुपा लेता है. हिजाज के जुनूबी हिस्से में तहामा का इलाका है. उस इलाके में लगभग हर समय रेतीली आंधी चलती रहती है, इसलिये आतंकी इन इलाकों में अपने ट्रेनिंग कैम्प चलातें हैं ताकि दूसरे देश की निगाहों से बचे रह सके.
अरब में इंसान दो रूपों में आबाद रहे. एक वर्ग बद्दू या देहाती था जो मुख्यतया खेती और पशुपालन से अपनी जीविका चलाता था और दूसरा वर्ग व्यापारी और संभ्रांत था जिसके व्यापारिक रिश्ते दुनिया भर में थे. जिनके अंदर राजनैतिक चेतना थी. ऐसा नहीं है कि अरब के अंदर का यह इंसानी विभाजन इस्लाम के आने के बाद खत्म हो गया. बद्दू अरब आज भी वहां पाये जातें हैं. बद्दू अस्थिर जीवन जीने के आदी थे, आज यहाँ तो कल वहां. उत्तरी अरब में बद्दू अधिक थे और दक्षिण अरब में शहरी. अरब के दोनों श्रेणियों के लोगों में कई बात कॉमन थी और वो ये कि ये लोग अपने वंश, रक्त और कबीले को लेकर बड़े अभिमानी थे. उनके नाम इसकी पुष्टि करते हैं, किसी अरब से उसका नाम पूछिए तो अपने पीछे के कई पूर्वजों का नाम वो झटके में बता देता था. जैसे अली बिन अबू तालिब बिन अब्दुल मुतल्लिब बिन हाशिम बिन अब्दे-मुनाफ. उनके अंदर अपने अतीत गौरव को पहचानने का बोध इतना था कि वो मानते थे कि उनके सिवा दुनिया में और कोई नहीं है जिसके पास अपने पूर्वजों को लेकर ऐसी शानदार जानकारी और गौरव-बोध हो. अरब के इन दोनों श्रेणियों के लोगों में एक बात और कॉमन थी वो थी न हम किसी को अपने अधीन करेंगे और न किसी के अधीन रखेंगे. इसलिये इस्लाम पूर्व अरब में जो जंगे होतीं थी उसका आधार सिर्फ और सिर्फ वंश-गौरव को ऊँचा रखना था. यानि वो लूटेरे नहीं थी, जंग को जीविकोपार्जन और साम्राज्य-विस्तार का साधन नहीं मानते थे.

"हदीसें कहतीं हैं कि इस्लाम पूर्व अरब में 1700 से अधिक युद्ध लडे गये पर इनमें एक भी पानी के लिये नहीं था, ये हैरतनाक इसलिये है क्योंकि पानी रेगिस्तान के लिये अमूल्य संपदा मानी जाती है".

तीसरी बात कॉमन थी कि ये सब ऊंट के ऊपर सबसे ज्यादा निर्भर थे. चाहे वो बद्दू हो या शहरी अरब, हरेक खुद को अहल-अल-जमल यानि ऊँटों वाले कहलाना पसंद करता था. आर्थिक सम्पन्नता का आधार ऊंट ही थे. ऊँटों के अलग-अलग नस्लों के गुणों, कमियों और विशेषताओं पर हर अरब महारत रखता था. ऊँट इनके लिये सबसे मुफीद जानवर इसलिये भी था क्योंकि अरब को सबसे अधिक लाभ इनसे ही पहुँचता था. ये ऊंटनी का दूध पीते थे, उससे सवारी का काम लेते थे, उसका मांस खाते थे, उसके खाल से कपड़े और तम्बू बनाते थे, उसकी मेगनी को ईंधन रूप में इस्तेमाल करते थे, उसके मूत्र का प्रयोग दवा के रूप में करते थे और कई बार पानी का अभाव होने पर उसे मारकर उसके अंदर का पानी इस्तेमाल करते थे. दूसरे पशुओं में इनकी निर्भरता घोड़े पर थी, घोड़ों से इनकी मुहब्बत इतनी थी कि पानी की अनुपलब्धता की स्थिति में ये खुद प्यासे रखकर भी अपने घोड़ों को पानी पिला देते थे.

अरबों के संबंध में दो बात हैरान करने वाली है कि प्राचीन काल में अरबी सम्पूर्ण प्रायद्वीप की भाषा नहीं थी, बल्कि अरबी केवल वहां के बद्दू बोलते थे जो अरब के उत्तरी भाग में आबाद थे, दक्षिण अरब की भाषा हिमारती थी जो अब लुप्तप्राय है. दूसरी हैरान करने वाली बात ये है कि उन अरबों में से कोई भी खुद को आदम का वंशज नहीं मानता था. ये अवधारणा वहां बाद में इस्लाम ने डाली. इस्लामी तारीख लिखने वाले अरब के इतिहास को हजरत इब्राहीम और उनके बड़े बेटे इस्माइल से आरम्भ करते हैं, जबकि अरब की तारीख कहीं दूर से आरंभ होती है. अरब में कुछ मूल निवासी आबाद थे तो कई बार बाहर से आकर भी वहां लोग आबाद होते रहे. वैसे तारीख में अरबों की तीन किस्में मानी जाती है. एक अरब कहलातें हैं, अलअरब-उल-बायदा, दूसरें हैं अलअरब-उल-आरेबा और तीसरें हैं अल-अरब-उल-मुस्तारबा. अरब लोगों की तीन श्रेणियों में विभाजन का एक बड़ा आधार अरबी भाषा भी है. अरबी भाषा के बारे में एक बड़ी गलतफहमी है कि ये केवल मुसलमानों की भाषा है जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है. इस्लाम के साथ इसका संबध मात्र इतना ही है कि कुरान जिस भाषा में उतरा था वो अरबी थी. अरबी संसार की प्राचीनतम भाषाओँ में एक मानी जाती है. सेमेटिक मजहब की भाषाओँ में यह हिब्रू के समकक्ष है. भविष्य पुराण की माने तो नोहा (नूह) के जमाने में भगवान बिष्णु ने भाषा को सहज करने की दृष्टि से एक मलेच्छ भाषा को जन्म दिया था और उसे नोहा (नूह) को सिखाया था, इस भाषा को हिब्रू कहा गया जो दायें से बाईं ओर लिखी जाती है. 'ही' मतलब हरि और ब्रू मतलब बोला गया यानि जो भाषा हरि के द्वारा बोली गई वो हिब्रू कहलाई.

इस्लाम के अहमदिया फिरके के संस्थापक की मान्यता थी कि अरबी भाषा सामी परिवार की दूसरी भाषाओं यथा इब्रानी, आरामी, सबाई, आशूरी, फिनीकी आदि भाषाओँ की जननी है पर उनके दावों को भाषा-विज्ञानियों की सहमति नहीं मिली. भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार अरबी इन भाषाओँ की माँ नहीं बल्कि बहनें हैं क्योंकि अरबी भाषा के बहुत से शब्द तथा व्याकरण के नियम अन्य सामी भाषाओँ से साम्यता रखतें है. कुछ मान्यता ये भी है कि अरबी संस्कृत से जन्मी है. इसके प्रमाण में अरबी के कई शब्द गिनाये जाते हैं जो मूल संस्कृत से निकले हैं. अरबी का संदल शब्द संस्कृत के चन्दन से, तनबूल शब्द ताम्बूल से, करनफल शब्द कर्णफूल से, कर्फास शब्द कर्पास से, नर्जिल शब्द नारिकेल से जन्मे है. कुरान में भी कई शब्द हैं जो संस्कृत से निकले हैं, जैसे कुरआन की सूरह अद-दहर् की 17वीं आयत में आता है- ‘व युस्क़ौ न फ़ीहा कअसन का न मिज़ाजुहा जंजबीला’ अर्थात् और वहां उनको ऐसा जाम पिलाया जायेगा जिसमें सोंठ की मिलावट होगी. इस आयत में अदरक के लिये प्रयुक्त अरबी शब्द है ‘जजंबील’ जिसकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द श्रृंगवेर् से हुई है. इसी तरह कुरान की एक आयत में आता है, इन्नल अब्रा र लफ़ी नई म अ़लल अराइकि यन्जु़रुन तअरिफु फ़ी वुजूहिहिम ऩज्रतन्नईम युस्कौ़ न मिर्रहीकि़म मख़्तूम खि़तामुहू मिस्क यानि ‘और उन्हें खालिस शराब पिलाई जा रही होगी जो मुहरबंद होगी, मुहर उसकी मुश्क की होगी, बढ़-चढ़ कर अभिलाषा करने वालों को इसकी अभिलाषा करनी चाहिये.' कस्तूरी को संस्कृत में ‘मुश्क’ कहा जाता है और इसी का अरबीकृत रुप मिस्क है जो जन्नत की नेअमत के रुप में इस आयत में बयान हुआ है. संस्कृत के और शब्द भी कुरान में मिलतें हैं, जैसे, पवित्र कुरआन की एक आयत में आता है- ‘इन्नल अब्रा र यश्रबू न मिन कअसिन कान मिज़ाजुहा काफ़ूरा ।’ ‘बेशक नेक लोग ऐसे जाम से पियेंगें जिसमें काफूर की मिलावट होगी।’ (सूरह अद्-दहर, आयत-5) उपरोक्त आयत में प्रयुक्त ‘काफूर’ शब्द मूल संस्कृत शब्द ‘कर्पूर’ का ही अरबीकृत रुप हैं.

अरब को जो लोग भी झटके में जाहिल कह देतें हैं उन्हें मालूम ही नहीं है कि इस्लाम पूर्व अरब के लोग साहित्य की दृष्टि से कितने ऊँचे थे. अपने भाषा पर उन्हें इतना गुरूर था कि अपने आगे वो शेष विश्व को मूक और गूंगा कहते थे. मक्का में उकाज नाम के जगह पर अरब के तमाम कवि और साहित्यकार इकट्ठे होते थे, उनके बीच काव्य और शेरो-शायरी की प्रतियोगितायें होतीं थी और विजेता के काव्य को मृग-छाले या स्वर्ण-पत्र पर अंकित कर काबे की दीवार में लगाया जाता था. जो उस काव्य-प्रतियोगिता में विजयी होता था उसे उसके कबीले वाले सर-आँखों पर बिठा लेते थे, महिलायें उनकी बलायें लेतीं थीं. ये भाषाविद युद्ध के लिए शौर्य गीत लिखते थे तो ईश्वर की आराधना के पद भी उनके कलम से निकलते थे.
कुरान अरबी भाषा में है महज इसलिये अरबी भाषा से हमारा ताअल्लुक नहीं ऐसी सोच गलत है. इस्लाम पूर्व के कवियों की रचनाओं में महादेव, वेद और भारत भूमि की स्तुति के पद मिलतें हैं. प्राचीन अरबी काव्य-ग्रन्थ सेररूल-ओकुल में अंदर ऐसे कई पद मिलतें हैं. इसी काव्य-संग्रह में अरबी कवि लबी-बिन-ए-अरबतब-बिन-तुर्फा की लिखी महादेव स्तुति मिलती है. दिल्ली के बिरला मंदिर की यज्ञशाला में वो आज भी प्रस्तर पर लिखा हुआ मिलेगा. लबी बिन ए अख़्तब बिन ए तुर्फ़ा की भगवान शिव के लिये लिखी गई स्तुति गूगल पर सहजता से उपलब्ध है. इसी काव्य-संग्रह में उमर-बिन-हशशाम की लिखी कविता भी मौजूद है जो मुहम्मद साहब के समकालीन थे. उमर-बिन-हशशाम अरब के प्राचीन धर्म को बचाने की जंग में बलिदान हुए. इस काव्य-संग्रह में जिन दूसरे कवियों और शायरों की रचनाएं हैं उनके नाम हैं, इम्र-उल-क़ैस, जुहैर, अंतरा, अलकमा, तरफ़ह, लबीद, अम्र-बिन-कुलसूम, अंतरह, नाबिग़्हा, हिम्माद उल राबिया, हारिस बिन हिलिज्ज़ा आदि. इस्लाम के आगमन के पूर्व अरबी भाषा में कई पुराणों का अनुवाद भी हुआ था. अरबी में अनुदित अति-प्राचीन भागवत पुराण का मिलना इसकी पुष्टि करता है. इसका अर्थ ये है कि अरबी लोग अनुवाद की कला में भी महारत रखते थे. अरब में ये खासियत थी कि वहां हर उम्र के लोग शायरी करते थे. काव्य में कसीदाकारी, वीर-रस की कवितायें, ताने देतीं हुई रचनाएं, तुकबंदी करती शायरी ये सब उनकी विशेषतायें थीं. अरब सबसे अधिक सम्मान अपने कवियों और शायरों का करते थे, उनका सम्मान इतना अधिक था कि वो अपने कबीले के लिये परामर्शदाता, मार्गदर्शक, अभिभावक और प्रतिनिधि माने जाते थे.
अरबी की भाषाई श्रेष्ठता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि कुरान कई स्थानों पर अरब वालों को भाषाई शास्त्रार्थ की चुनौती देता दिखता है. अकेला भाषा ही वो आधार है जो इस्लाम पूर्व अरब को जाहिल कहने की सारी गुंजाईशें खत्म कर देता है. अल-दावी का काव्य-संग्रह अल-मुफ़द्दलिआत' 120 मधुर गीतों का संकलन है, अल-दावी की कई रचनाएं काबा की दीवारों पर सुशोभित थीं. किताबुल-अगानी नाम के काव्य-संग्रह में अरब की गौरवशाली वंश परम्परा का वर्णन मिलता है. वहां के अन्य बड़े कवियों में एक नाम अंतरा इब्ने-शद्दार अल अबू का भी है जो शौर्य-गीत रचा करते थे. अरब के ऊपर एक आरोप महिला-विरोधी होने का भी है. जबकि उस समय के बड़े कवियों में कुछ महिलायें भी थीं जिनमें सबसे बड़ा नाम कीर्ति खनसा का है, उसके भाई की निर्मम हत्या कर दी गई थी जिसके बाद उसने अपने दर्द को काव्य रूप में लिखा था. काव्य की मर्सिया विधा ने अरब भूमि से जन्म लिया था. अरब के बारे में एक गलत धारणा डाली गई है कि ये सारे लोग इब्राहीम के बेटे इस्माईल के वंशज हैं. ये अवधारणा सही नहीं है. अरबों का वजूद इस धरती में हजरत नूह (नोहा) से भी काफी पहले का है पर कुछ लोगों के अनुसार अरब में जो आबादी सबसे पहले बसी थी वो नूह के बेटे हाम की औलादों में थी तो दूसरी मान्यता मूल अरबों को नूह के दूसरे बेटे साम की औलाद मानती है.

अरबों की तीन किस्मों में जिन बायदा अरबों का जिक्र पहले किया था ये वो लोग थे जो मूल (original) अरब थे. इनका इतिहास सबसे प्राचीन है और ये अरबी भाषा के जनक माने जातें हैं पर ये वो लोग थे जो आंधी-तूफ़ान, बाढ़, महामारी वगैरह के चलते नष्ट हो गये. इन अरबों में अब कोई भी बाकी नहीं बचा है. इन अरबों से जुड़ी निशानियाँ यशरिब (मदीना) से खैबर और मद्यन के रास्ते में तथा यमन वगैरह में आज भी पाई जाती हैं. बायदा अरबों में पहला नाम आता है आद जाति का. ये जाति लगभग 2500-3000 ईसा पूर्व नष्ट हुई थी और यमन के पास हजरमौत नाम की जगह पर और कुछ ओमान के पास आबाद थी. ये लोग बड़े शक्तिशाली हुआ करते थे, कहतें हैं कि अरब के सर्वप्रथम बादशाह आद जाति से हुए थे, इनका रूतबा आस-पास के तमाम इलाकों में था. आद लोग मूर्तिपूजक और बहुदेववादी थे तथा मुख्यतया तीन तरह की देवियों की उपासना किया करतें थे जिनके नाम समदा, समूदा तथा हरा था. 'आद' इस वंश के मुखिया का नाम था. कुछ मान्यता इन्हें भगवान श्रीकृष्ण से संबद्ध करते हुए कहती हैं कि ये यदुवंश के उन बचे लोगों में से थे जो यादवी संग्राम के दौरान द्वारिका के जलमग्न होने से पूर्व वहां से निकल गये थे. इन लोगों में हूद नाम के सुधारक भेजे जाने का वर्णन मिलता है, हूद को कुछ लोग नूह के बेटे साम का पोता मानतें हैं. हूद के बारे में कहा जाता है कि उनकी कब्र आज भी हजरमौत में मौजूद है, उस जगह पर अब बड़ा मेला लगता है. आद लोगों का एक नाम इरम भी था, इन लोगों ने कई बड़े और भव्य नगर बसाये थे. इब्रानी लोग आद लोगों को रशम कहा करते थे, इब्रानी में रशम का अर्थ है पत्थरों में रहने वाले. आज भी मद्यन इलाके के पहाड़ों में इनके द्वारा बनाये गुफाओं का निशान मिलता है, उन गुफाओं में आरामी और समुदी भाषा में लिखे कई अभिलेख मिले हैं जिन्हें पढ़ने की कोशिश जारी है. एक प्रचंड तूफान में ये जाति नष्ट हुई. कुछ विद्वान ये भी मानतें हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात् हुए विस्थापन ने कई लोगों को अरब और उसके निकटवर्ती प्रदेशों में आबाद कर दिया था. शाम देश (सीरिया) भगवान कृष्ण के नाम श्याम से साम्यता रखता है.
बायदा अरबों में एक नाम समूद जाति का भी है. समूद या समुद्र जाति का वर्णन सबसे पहले अरस्तू आयर बतलीमूस की किताबों में मिलता है, ये लोग हिजाज और तबूक के दरमियान आबाद थे और भवन निर्माण में बड़ी कुशलता रखते थे तथा बड़े कुशल समुद्री व्यापारी थे. सालेह या फल्ज़ नाम के व्यक्ति को इनका सुधारक माना जाता है. सालेह भी नूह-वंशी थे और उनके दादा समूद के नाम पर उनकी जाति का ये नाम था. इनका काल इब्राहीम से 300 से 500 साल पहले का है. सालेह को तौरात में फल्ज़ नाम से बुलाया गया है और उत्पत्ति ग्रन्थ में उनका वर्णन आता है. कुरान इस जाति को मूसा से पहले का बताता है. ये जाति पहाड़ों में मकान बनाकर रहा करती थी और बहुदेवतावादी थी. मूर्तिपूजक भी थी क्योंकि इनके द्वारा बनाये घरों के जो निशान मिले हैं उसमें मूर्ति और देवी-देवताओं की दीवारों पर उकेरी गई तस्वीरें मिली है. इस कड़ी में कौमे-लूत का नाम भी शामिल है जो ओमान के इलाके में आबाद थे, ये जाति भी एक प्राकृतिक आपदा के चलते विनष्ट हुई थी. इसके अलावा अबैल, अमालका, तसम, जदीस जैसी कौमें भी वहां आबाद और विनष्ट होतीं रहीं.
अरब की दूसरी किस्म आरेबा (True Arabs) कहलातीं हैं. इन्हें कहतान की औलाद माना जाता है और कहतानी कहकर भी बुलाया जाता है. इन आरेबा अरबों के बारे में कहा जाता है कि इनमें से कुछ लोग पूरब की ओर काबुल के पास (यानि तब के हिन्द) से भी आये. इनमें से एक का नाम था यारब था. ये लोग कहतान के वंशज थे और सूर्य पूजक थे, इनके वंश में हुए एक शासक का नाम था अब्दुस शम्स (यानि सूर्य का दास). इन बायदा अरबों का काल प्राचीन अरब के लिये स्वर्ण-युग था क्योंकि ये लोग मक्के के दक्षिणी इलाके से निकलकर बेबीलोन, सीरिया और मिस्र तक गये और अपनी संस्कृति का विस्तार किया. बाबिल से ही हम्बूराबी का नाम जुड़ा हुआ है जिसके न्याय-व्यवस्था के बारे में हमलोग इतिहास की किताबों में पढतें हैं. हजरमौत के इलाके से लेकर खलीज-फारस के दरम्यानी इलाके समृद्ध अरब की गवाह थी. ये लोग जलयात्रा में दक्षता रखते थे. इनका निवास यमन के इलाके में भी था. बायदा अरबों के विनाश के बाद इनके बारे में कहा जाता है कि ये मूल अरब थे. लाल सागर से लेकर फारस की खाड़ी के बीच आबाद कई अरबों का आज भी ये दावा है कि वो आरेबा अरब यानि मूल अरब हैं. यमन वगैरह में आज भी कहतान नाम आम है. इस्लामी किताबों के अध्ययन से भी मालूम होता है कि कहतान कबीले के लोग आज भी वजूद में हैं. कयामत से जुड़ी पेशीनगोईयों में कहतान का जिक्र कई दफा आता है. हदीसें कहतीं हैं कि याजुज और माजुज के खातमे के बाद ईसा अपनी हुकूमत कायम करेंगे और फिर उनकी वफात हो जाएगी और मुसलमान उनकी नमाजे-जनाज़ा अदा करेंगे और उनको रसूल के पहलू में दफ़न करेंगे. फिर यमन के कबीले "कहतान" से एक शख्स जिसका नाम जहजाह होगा, खलीफा बनेगा और अद्ल-इन्साफ के साथ हुकूमत करेगा. कहतान कबीले का जिक्र बुखारी और मुस्लिम शरीफ में भी आया है. हजरत अबू हुरैरा से रिवायत एक हदीस में आता है, नबी ने फरमाया कि क़यामत तब तक कायम नहीं हो सकती जब तक यमन के कबीले कहतान से ऐसा शख्स जाहिर न हो जो लोगों को अपने लकड़ी से हांकेगा. यमन का कबीला जुरहम इन्हीं लोगों में आता है.
आरेबा और मुस्तारेबा को सम्मिलित रूप से अरब-बाकिया भी कहा जाता है. अरब की इस तीसरी किस्म मुस्तारेबा और आरेबा में एक मूल अंतर ये है कि जहाँ आरेबा अरबों की मूल जुबान अरबी थी वहीँ मुआतारेबा वो थे जिन्होनें आरेबा लोगों से अरबी जुबान सीखी. मुस्तारेबा मूल अरब नहीं थे. बल्कि ये बाहरी लोग थे जिन्होनें अरबियत की अपनाया था. रोचक बात ये है कि पैगम्बरे-इस्लाम भी इन्हीं मुस्तारेबा अरब में से हैं, यानि पूर्वज परंपरा से वो मूल अरब नहीं थे.
भारत में जो लोग मैकाले द्वारा गढ़े गये आर्य-द्रविड़ के झूठे सिद्धांत का आड़ लेकर यहाँ के हिन्दुओं पर हमले करते हुए उनका ये कहकर मजाक उड़ातें हैं कि तुम्हारा हिन्द से क्या ताअल्लुक ? तुम सब तो बाहरी लोग हो, उन सब लोगों के लिये मुस्तारेबा-अरब का ये सत्य मुंहतोड़ जबाब है.
अरबों की तीसरी किस्म मुस्तारेबा के बारे में समझने के लिये हमें यहूदी इतिहास कथाओं में जाना होगा क्योंकि ये कड़ी वहीँ जाकर जुड़ती है. इब्राहीम से इसका ताअल्लुक है, ये इब्राहीम वहीँ हैं जिनसे हर सेमेटिक मजहब वाला अपना संबंध जोड़ता है और उनको अपना पितृ-पुरुष मानता है. इब्राहीम के बारे में जानने के तीन जरिये हैं, एक है तौरात जिसके पहले अध्याय यानि उत्पत्ति ग्रंथ में उनका बड़ा विशद वर्णन आया है. दूसरा है कुरान, हदीसें और इस्लाम से संबद्ध और दूसरी किताबें और तीसरी है भविष्य पुराण जिनमें उनका 'अविराम' नाम से वर्णन मिलता है. तौरात और इस्लामी ग्रंथों में इब्राहीम का जो वर्णन है उसमें बहुत ज्यादा विभेद है. उदाहरण के लिये तौरात में इब्राहीम के पिता का नाम तेरह (तारा) आया है तो वहीं कुरान कहता हैं कि उनके पिता का नाम आज़र था परन्तु कुरान से यह बात साबित है कि इब्राहीम जिस शहर में पैदा हुए थे वो प्रकृति पूजक और मूर्ति में ईश्वर देखने वाले लोग थे. उनके लोग चाँद और नक्षत्र की पूजा करते थे. तौरात और इस्लामी ग्रंथों के अनुसार इब्राहीम इराक के शहर उर में पैदा हुए थे जबकि दूसरी मान्यता कहती है कि वो पैदा तो इराक में ही हुए थे पर शहर का नाम कोशा था न कि उर. उनकी पैदाइश में बारे में कहा जाता है कि वो ईसा से करीबन 2000 साल पहले पैदा हुए थे. इब्राहीम का पहला निकाह सारा नाम की लड़की से हुआ था जो उनकी चचाजाद बहन थी. तौरात कहती है कि दमिश्क के पास के एक शहर हारान से वो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात निकल गये और कनान देश में जाकर बस गये. वहां उनके साथ उनके भाई हारान का बेटा यानि उनका भतीजा लूत भी था. फिर वहां से अब्राहम (इब्राहीम) मिस्र चले गये. सारा की खूबसूरती पर लट्टू होकर वहां के बादशाह ने सारा का अपहरण कर लिया पर इब्राहीम ने उससे ये कहकर कि 'ये मेरी बहन है' किसी तरह मुक्त कराया. मिस्र से कनान लौटते हुए इब्राहीम और सारा ने एक लौंडी भी साथ लिया जिसका नाम हाज़रा था. विवाह के अनेक वर्ष के पश्चात् भी जब सारा से इब्राहीम की कोई औलाद नहीं हुई थी तो औलाद के लालच में सारा ने इब्राहीम से कहा कि तू उस लौंडी के पास जा, संभव है कि मेरा घर उसके द्वारा बस जाये. फिर इब्राहीम को हाज़रा से इस्माइल नाम का पुत्र हुआ.
ये कथा मुस्लिम और यहूदी के बीच झगड़े की सबसे बड़ी वजह है. इसका कारण ये है कि इब्राहीम और हाजरा के ताअल्लुक को लेकर यहूदी ग्रन्थ तौरात और इस्लामी ग्रंथों में बड़ा जबरदस्त मतभेद है. तौरात में ऐसा कोई वर्णन नहीं है कि इब्राहीम ने हाजरा से निकाह किया था जबकि इब्ने-हजर जैसे इस्लामी विद्वान कहतें हैं कि हाजरा लौंडी नहीं थी बल्कि मिस्र के राजा के बेटी थी और उनका इब्राहीम के साथ निकाह हुआ था. बाद में बीबी सारा से भी इब्राहीम को एक औलाद हुई जिसका नाम इसहाक था. अब झगड़ा ये है कि पूरा अरब जगत इस्माइल को अबू अरब यानि अरबों के पितामह के रूप में जानता है और पूरी उम्मते-मुस्लिमा खुद को इस्माइल वंशी कहता है और इधर यहूदी जगत खुद को इसहाक वंशी मानतें हैं. अब अपने ग्रन्थ के आधार पर यहूदी इस्माइल वंशियों को ये कहते हुए हेय समझतें हैं कि जरखरीद दासी से पैदा हुई औलाद के वंशज सम्मान के लायक कैसे हो सकतें हैं जबकि इधर मुस्लिम दावा इसके बरअक्स है.
अब्राहम के संबंध में दो बातें बड़ी मशहूर है. एक ये कि ये नाम हिन्दुओं के त्रिदेवों में एक ब्रह्मा के नाम हिब्रू रूपांतरण है. ऐसा कहने वालों का तर्क है कि अब्राहम का मूल नाम अब्राम था जो बाद में यहोवा के साथ वाचा बाँधने के कारण अब्राहम हो गया. तौरात के उत्पत्ति ग्रन्थ के अनुसार अब्रहाम का अर्थ है 'कई कौमों का बाप'. भारतीय परंपरा में भी ब्रह्मा को सभी देवताओं, दानवों और मानवों का पितामह माना जाता है. अब्राहम को ही अरबी में इब्राहीम कहा गया है. ब्रह्मा और अब्राहम में साम्यता ढूँढने वालों का एक तर्क ये भी है कि कुरान में इब्राहीम के बारे में आता है कि सबसे पहले उन्हें ही सहीफे (किताब) दिए गये थे और इसी तरह भारतीय परंपरा में भी ये माना जाता है भगवान विष्णु की प्रेरणा से सरस्वती ने सर्वप्रथम ब्रह्मा जी को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान कराया. साम्यता ढूँढने वालों का तर्क ये भी कि ब्रह्मा की पत्नी सावित्री और अब्राहम की पत्नी सारा के नाम में भी समानता है, वो ये भी कहतें हैं कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अंगिरस ही उनके बेटे इसहाक थे. अब्राहम के जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण, रोचक और हैरान करने वाली बात है कि उनकी कथा और हमारे यहाँ के भक्त प्रहलाद की कथा में काफी कुछ साम्यता है. प्रहलाद का अपने पिता हिरण्यकश्यप के साथ ईश्वर की अवधारणा को लेकर मतभेद था और इब्राहीम की कथा में भी ऐसा ही कुछ है. प्रहलाद के ऊपर उसके पिता यानि उस वक़्त के शासक हिरण्यकश्यप ने बड़े अत्याचार किये थे, उनको जीवित ही अग्नि में झोंक दिया था, ऐसा ही इब्राहीम के साथ भी उस वक़्त के बादशाह नमरूद ने भी किया. इब्राहीम को भी आग में डाला गया था पर दोनों ही ईश्वर की कृपा से बचा लिए गये. नमरूद और हिरण्यकश्यप दोनों का अंत ईश्वर के दंड के परिणामस्वरुप हुआ था.

तौरात के उत्पत्ति ग्रन्थ से हमें जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार जब हाजरा हामिला हुई थी तबसे ही दोनों सौतनों में झगड़े होने लगे थे. सारा इब्राहीम के पास शिकायत लेकर पहुँच गई कि अब चूँकि ये लौंडी गर्भ से है और मैं नहीं हूँ, इसलिये वो मुझे हकीर (कमतर) समझती है. इसपर इब्राहीम ने सारा से कहा, वो तेरी लौंडी है उसपर तेरा हक़ है, तू उसके साथ जो चाहे कर. उसके बाद सारा उसके ऊपर सख्ती दिखाने लगी जिससे आजिज आकर हाजरा घर छोड़ कर भाई गई. फिर किसी फ़रिश्ते के समझाने के बाद वो वापस सारा के पास आ गई और उसे इस्माइल नाम का पुत्र हुआ. इब्राहीम जब पिता बने उनकी उम्र छियासी साल की थी. जब इब्राहीम सौ साल के हुए तो उनका खुदा के साथ संवाद हुआ और उन्हें और उनकी बूढ़ी पत्नी सारा को एक औलाद की खुशखबरी दी गई. फिर इब्राहीम को सारा से इसहाक नाम का एक और पुत्र हुआ. जब सारा भी औलाद वाली हो गई तो दोनों सौतनों में फिर से क्लेश बढ़ गया और सारा ने इब्राहीम से साफ़ कह दीजिये कि इस लौंडी के बेटे को मैं तेरा वारिस नहीं बनने दूँगी. सारा के दबाब में इब्राहीम ने अपनी लौंडी और उससे हुए बच्चे इस्माइल को घर से निकाल दिया. घर से निकालते वक्त इब्राहीम ने उन्हें बस कुछ रोटी और पानी का मश्क ही दिया. बेचारी हाजिरा अपने बेटे को लेकर बियाबान में भटकने लगी. जब रोटी और पानी दोनों खत्म हो गये तो वो अपने बेटे को एक झाड़ी के पास रखकर वहां से दूर जाकर बैठ गई ताकि पानी के अभाव में बेटे को तड़प-तड़प कर मरते हुये न देख सके. फिर कोई फ़रिश्ता आता है और उसे एक कुआँ दिखाता है है जिससे दोनों की जान बचती है, बाईबल के अनुसार हाजिरा और इस्माइल जहाँ आबाद हुए थे वो फारान का बंजर, बियाबान और रेगिस्तानी इलाका था. इस्माइल और हाजिरा को लेकर इस्लामिक और यहूदी मान्यताओं में बड़ा फ़र्क है पर तमाम अंतरों के बाबजूद एक बात दोनों में समान है कि इब्राहीम ने अपने बच्चे और बीबी को घर से निकाल दिया था और वो भी उनके राशन-पानी और सुरक्षा का इंतज़ाम किये बिना. उन दोनों को बियाबान रेगिस्तान में खूंखार जंगली जानवरों के बीच भूखा-प्यासा छोड़ दिया गया.
इस्माइल और हाजिरा के बारे में इस्लामिक मान्यता क्या है इसकी चर्चा आगे होगी पर एक बात यहाँ तवज्जो-तलब है और वो ये कि अपने अतीत में इब्राहीम द्वारा अपने बच्चे और बीबी/लौंडी के परित्याग का इतिहास रखने वाले जब राम द्वारा सीता के परित्याग पर प्रश्न उठाते हैं तो बड़ी हैरत होती है वो भी तब जबकि राम ने सीता को किसी रेगिस्तान में नहीं बल्कि ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ा था.
सामी मजहबों के आदि पुरुष इब्राहीम द्वारा अपनी बीबी/लौंडी हाजरा को घर से निकालने को लेकर तौरात और इस्लामी ग्रंथों में बड़ा मतभेद है. यहूदी मान्यता कहती है कि जब इब्राहीम के बड़े बेटे इस्माइल तेरह साल के थे तब उन्हें माँ समेत घर-निकाला दिया गया था पर इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार जिस समय इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा को घर से निकाला था उस समय उनके बेटे दूध पीते बच्चे थे. कुरान के सूरह इब्राहीम और बुखारी शरीफ के किताबुल-अंबिया में इसका वर्णन विस्तार से आया है. जब इब्राहीम हाजरा और इस्माइल को छोड़ कर जा रहे थे वो हाजरा उनके पीछे दौड़ती हुई आई और बड़े कातर स्वर में अपने पति से कहा, मेरे पास बस थोड़ी सी रोटी है, पानी खत्म होने वाला है, साथ में दूध पीता बच्चा है और सामने ये चटियल मैदान और पहाड़ों से घिरी हुई वादी है, जंगली जानवर चारों ओर घूम रहें हैं और आप हमें छोड़कर वापस जा रहें हैं? इब्राहीम ऊंटनी पर सवाल होकर लौट रहे थे, उन्होंनें पत्नी के सवाल पर मौन धारण कर लिया. निराश हाजरा वापस लौट आयीं और इब्राहीम उन्हें छोड़कर वहां से चले गये. इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा तथा अपने दूध पीते बच्चे इस्माइल को जिस जगह पर छोड़ा था उसको लेकर भी यहूदी और इस्लामिक मान्यता में बड़ा मतभेद है. तौरात कहती है कि हाजरा और इस्माइल को फारान के पहाड़ों में छोड़ा गया था. यहूदी और ईसाई विद्वानों के अनुसार फारान का इलाका सीना के रेगिस्तान के पास है. इधर कुरान कहता है कि इब्राहीम ने अपनी बीबी/लौंडी हाजरा और इस्माइल को काबे के पास यानि मक्के में बसाया था. चूँकि मुस्लिम जगत ये मानता हैं कि हाजरा और इस्माइल को इब्राहीम ने मक्के में छोड़ा था इसलिये हम आलेख माला को इसी मान्यता पर आगे बढायेंगें. जब रात हुई तो बीबी हाजरा बड़ी परेशान हुईं क्योंकि पास में न खाने को कुछ था न पीने को. जंगली जानवरों की ओर से लगातार हमले का खतरा बना हुआ था और उन जानवरों की आवाजों से बच्चा डर कर न सो रहा था न ही हाजरा को सोने दे रहा था. सुबह हुई तो भूख और प्यास से दोनों की हालत खराब. अब हाजरा के पास बचा सारा पानी खत्म हो गया और उनका दूध-पीता बच्चा इस्माईल प्यास से तड़पने लगा. माँ उठ खड़ी हुई, चारों ओर देखा. कहीं से भी पानी मिलने की गुंजाईश न देख कर वो पास के एक पहाड़ सफा पर चढ़ गईं पर वहां पानी न मिला तो वो एक वादी में उतर गईं और भागती हुई वहां से एक दूसरी पहाड़ी मरवा पर चढ़ गई ताकि वहां कोई पानी का सोता मिल सके मगर पानी वहां भी न था. इस क्रम में उन्होंने सात बार दोनों पहाड़ी के दरम्यान चक्कर लगा लिये. (आज भी जब मुस्लिम जब हज करने जातें हैं तो हाजरा के इन्हीं चक्करों की याद में सात दफ़ा सफा और मरवा पहाड़ी के बीच चक्कर लगातें हैं) मुस्लिम कथाएं कहतीं हैं कि बुरी तरह थक के जब हाजरा मरवा पहाड़ी से उतर रहीं थीं तो उन्हें अपने बेटे के पैरों के पास पानी का एक चश्मा बहता नज़र आया जिसे एक फ़रिश्ते जिब्रील ने अपने परों (पंखों) से खोदा था. ये पानी ही आज आबे-जमजम नाम से मशहूर है. हर हाजी इसका सेवन जरूर करता है.

(पानी वाली कथा में भी इस्लामिक और यहूदी मान्यता में विभेद है. तौरात के अनुसार मश्क का पानी ख़त्म होने के बाद जब हाजरा बैरसबा के इलाके में भटक रही थी तब उसने देखा कि उसका बच्चा प्यास से तड़प रहा है तब उसने अपने बेटे को किसी झाड़ी के किनारे डाल दिया और खुद वहां से दूर चली गई ताकि प्यास से तड़प-तड़प कर अपने बच्चे को मरता हुआ न देख सके. वो बेचारी वहां दहाड़े मार-मार का रो रही थी तभी एक फ़रिश्ता प्रकट हो गया और उसने दोनों को एक कुआँ दिखाया. हाजरा ने बेटे को पानी पिलाया और वहीं उसकी परवरिश शुरू कर दी).

पानी मिला तो फिर दोनों माँ-बेटे वहीं आबाद हो गये. इसी क्रम में यमन से निकला जुरहम नाम का एक कबीला पानी की तलाश में भटक रहा था. जब ये कबीला मक्के के पास पहुँचा तो उन्होंनें वहां कुछ पक्षी उड़ते देखे. रेगिस्तानी इलाकों में पक्षियों के उड़ने का अर्थ है कि आसपास कहीं पानी मौजूद है. वो लोग बड़े अचम्भित हुए कि इन इलाकों में तो कभी कोई जल-स्रोत नहीं था फिर अचानक ये परिंदे यहाँ कैसे उड़ रहे हैं और फिर वो उन पक्षियों की निशानदेही करते हुए उस जगह तक पहुँच गये जहाँ जमजम का कुआँ जाहिर हुआ था. वहां पहुँचे तो देखा कि वहां एक बूढी महिला अपने एक बेटे के साथ हैं. वो वहां आयें और आकर हाजरा से कहा कि हमारा ये कबीला यमन से चला है, कई महीनों से पानी की तलाश में निकला हुआ है. अब हमारी हालत पस्त है इसलिये अगर आप हमें अनुमति दें तो हम यहाँ आबाद हो जायें. हाजरा ने उनको ये कहते हुए जमजम के पास आबाद होने की इजाजत दी कि पानी पर मिल्कियत आपलोगों की नहीं बल्कि मेरी, मेरे बेटे की और हमारी आने वाली नस्ल की होगा और पानी इस्तेमाल करने के एवज में आप हमें कुछ मुआवजा भी देंगे. जो लोग इस्लाम पूर्व अरब को जाहिल कहतें हैं, उपरोक्त घटना उनके झूठे दावों का मुंहतोड़ जबाब है. जुरहम कबीले में सैकड़ों लोग रहे होंगें और इधर एक अकेली बूढी औरत अपने छोटे बेटे के साथ थी. जुरहम कबीले वाले चाहते तो उन्हें वहां से मारकर भगा देते और पानी पर कब्ज़ा कर लेते पर इसके विपरीत उन्होंने जो सभ्य आचरण प्रदर्शित किया उसकी मिसाल अन्यत्र मिलनी मुश्किल है. खैर, जुरहम कबीला वहां आबाद हुआ फिर उसी कबीले के एक लड़की के साथ इस्माइल का विवाह हुआ. बाद में इस्माइल ने जब दूसरा विवाह किया तो उसके लिये भी उन्होंने जुरहम कबीले से ही लड़की ली. यानि इस्माइल की दोनों ही पत्नियाँ यमन के कबीले जुरहम से थी. इस्लामिक इतिहासकार तबरी ने अपने इतिहास ग्रन्थ तारीखे-तबरी में बताया है कि इस्माइल की दूसरी पत्नी जुरहम कबीले के सरदार मजाज़-बिन-अम्र की बेटी थी जिससे उन्हें 12 बेटे हुए थी. इन्हीं के बारह बेटों से जो खानदान आगे बढ़ा वो मुस्तारेबा-अरब कहलाये. इसी वंश में पैगम्बरे-इस्लाम मुहम्मद साहब भी पैदा हुये. यानि आप इस्माइल वंशी होने के चलते मुस्तारेबा-अरब थे. मुस्तारेबा का अर्थ है कि वो लोग जो मूल अरब नहीं थे और जिन्होनें दूसरों के संसर्ग से अरबी सीखी. उपरोक्त तथ्य हम हिन्दुस्तान के लोगों के लिये इसलिये तवज्जो-तलब है क्योंकि यहाँ हम हिन्दुओं के पूर्वजों के बारे में बड़ा शोर बरपा किया जाता है कि तुम लोग तो भारत के मूल निवासी हो हीं नहीं क्योंकि तेरे पूर्वज तो कहीं कैश्पियन सागर या मध्य-पूर्व से आने वाले प्रवासी थे जिन्होंने यहाँ कब्ज़ा कर लिया था. आर्य-द्रविड़ मिथक के पर्दाफ़ाश करने वाले लोग इस जानकारी का समुचित उपयोग कर सकतें हैं.

~ अभिजीत

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