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क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत

“ क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत ा “ —गोलोक विहारी राय पिछले कुछ वर्षों...

Sunday 21 October 2012

जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग ---

चीन-भारत युद्ध के ५० वें वर्ष पर--

जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग  ---

          आज से ठीक 50 साल पहले 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला किया था। एक महीने चली इस लड़ाई में भारत को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा था। चीनी सेना भारत के अंदर घुस रही थी और असम के तेजपुर शहर को रातों रात खाली करा लिया गया था। 19 नवंबर 1962 को भारतीय सेना की फोर्थ कोर को वापस गुवाहटी लौटने के आदेश दे दिए गए थे। 
 
ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे तेजपुर को भी खाली कराने के आदेश दे दिए गए थे। हालात इतने भयावह थे कि तेजपुर से लौटते वक्त भारतीयों ने नुनमती रिफाइनरी को भी उड़ा दिया था। भारतीय स्टेट बैंक ने नोटों को आग के हवाले कर दिया था और सिक्कों को तालाब में डाल दिया था। शहर के मनोरोग अस्पताल को भी खुला छोड़ दिया गया था और रोगी सड़कों पर टहल रहे थे। जिला प्रशासन छिन्न-भिन्न हो गया था। मजिस्ट्रेट ने अपनी पोस्ट छोड़ दी थी। राणा केडीएन सिंह को तेजपुर की व्यवस्था संभालने को कहा गया और उन्होंने आनन-फानन में लोगों को ब्रह्मपुत्र पार करवाई। जो लोग वहां रह गए उन्हें चाय के बागानों और जंगलों में छिपकर वक्त गुजराना पड़ा। एक ही दिन में तेजपुर भुतहा कस्बे में बदल में गया था। 
 
19 नवंबर को आधी रात के वक्त चीनी रेडियो ने युद्ध विराम की घोषणा की। चीन की ओर से कहा गया कि अगर भारतीय सेना आगे नहीं बढ़ी तो चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार युद्ध शुरू होने से पहले की स्थिति पर चली जाएगी।  20 नवंबर को युद्ध विराम की घोषणा हो गई और इसके बाद तेजपुर में दोबारा जिंदगी पटरी पर आने लगी। तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अगले ही दिन तेजपुर पहुंचे और हवाई दौरा भी किया। 22 नवंबर को इंदिरा गांधी ने भी तेजपुर का दौरा किया। प्रधानमंत्री नेहरू ने भी असम के लोगों को संबोधित किया और उनमें भरोसा जगाने की कोशिश की।
(तस्वीरः तेजपुर खाली करके जाते नागरिक)...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग

...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
चीन का सामना करने को तैयार भारत!
...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
अब भारत को गंभीरता से लेता है चीन!...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
ड्रैगन से जंग को तैयार रहे भारत!
1962 की जंग के कारण
भारत और चीन के बीच लंबे ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं। इन रिश्तों की जड़ें ह्ववेनसॉन्ग जैसे यात्रियों से लेकर मध्य एशिया के महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट तक में ढूंढा जा सकता है। भारतीय दर्शन पर कन्फ्यूसियस जैसे चीनी दार्शनिकों के विचारों का भी असर पड़ा है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। बौद्ध धर्म भी दोनों देशों के बीच एक पुल का काम करता रहा है। लेकिन 1947 में भारत को आज़ादी मिलने और चीन ने 1949 में जनवादी गणतंत्र (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की शक्ल ली। लेकिन जब इन दोनों मुल्कों के बतौर देश शुरुआती दिन ही थे, तभी दोनों के बीच रिश्तों की गर्माहट को सीमा विवाद ने ठंडा करना शुरू कर दिया। इस विवाद से पहले 'समाजवादी' नेहरू और 'साम्यवादी' चीन के बीच अच्छे रिश्ते बनने लगे थे। उस दौर में नारा भी लगा, 'हिंदी चीनी-चीनी भाई-भाई'। लेकिन 1959 में हिमालय की पहाड़ियों में मिलने वाली दोनों देशों की सीमाओं ने विवाद की ऐसी लकीर खींची, जिसे आज भी मिटाया नहीं जा सका है। भारत और चीन के बीच सीमा का बंटवारा मैकमोहन रेखा कहलाती है। चीन मैकमोहन रेखा को सीमा के रूप में मान्यता नहीं देता है। इसी विवाद को सुलझाने के लिए 1993 और 1996 में दोनों देशों के बीच लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलओएसी) पर सहमति बनी थी। लेकिन जानकारों की राय में दोनों देशों के बीच विवाद की जड़ सिर्फ मैकमोहन रेखा ही नहीं थी। बल्कि मार्च, 1959 में तिब्बत में भड़का विद्रोह भी इसकी बड़ी वजह है।

विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव आरएस काल्हा के मुताबिक तिब्बत विद्रोह के समय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव डेंग जियाओपिंग ने माना था कि तिब्बत मुद्दे पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कई भाषण भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। इसके अलावा भारत स्थित कैलिंपॉन्ग का विद्रोहियों की ओर से मुख्यालय के तौर पर इस्तेमाल भी चीन को अखर रहा था। इन बातों से साफ था कि चीन भारत को लेकर तिलमिलाया हुआ था। चीन को लगता था कि तिब्बती विद्रोह के पीछे भारत सरकार का हाथ है और जब समय आएगा भारत के साथ हिसाब चुकता कर दिया जाएगा। कई साल बाद चीनी राष्ट्रपति लियू शाओकी ने श्रीलंका के नेता फेलिक्स भंडारानायके को बताया कि 1962 की जंग भारत के गुरूर और बड़े देश के भ्रम को खत्म करने के लिए शुरू की गई थी। लियू ने स्वीडन के राजदूत से बातचीत में भी इन्हीं पंक्तियों को दोहराया था। 1964 में माओ जेडुंग ने चीन की इस सोच की पुष्टि करते हुए नेपाली प्रतिनिधिमंडल को 1964 में बताया था कि भारत और चीन के बीच असली संकट मैकमोहन रेखा नहीं बल्कि तिब्बत का सवाल था। जेडुंग का यह भी मानना था कि भारतीय सरकार की नज़र में तिब्बत पर उनका हक था। लेकिन हाल ही में एक चीनी पब्लिकेशन में छपे लेख में कहा गया कि भारत के खिलाफ जंग छेड़ने के पीछे चीन का असली मकसद तत्कालीन सोवियत रूस और अमेरिका की उस नीति को बौना करना था जिसके तहत ये दोनों देश चीन के खिलाफ काम कर रहे थे। लेख के मुताबिक जंग का असली मकसद नेहरू के चेहरे पर दर्द देखना नहीं बल्कि केनेडी और ख्रुश्चेव के माथे पर शिकन देखना था।
इसके अलावा चीन का यह मानना भी था कि भारत को सीधी मात भारत-चीन सीमा को लंबे अरसे तक शांत रखेगा, जो चीन के हित में है। इससे तिब्बत में भारत की दखलअंदाजी भी खत्म होगी और पड़ोसियों के साथ शांति समझौते का रास्ता खुलेगा। इससे तिब्बत में विवाद शांत हो जाएगा।

दोनों देशों के बीच जंग की एक अन्य वजह का खुलासा हाल ही में हुआ है। भारत और चीन के बीच युद्ध के आसार क्यों बने, इसे लेकर एक चौंकाने वाला खुलासा चीन के ही एक रणनीतिकार ने किया। चीन की पेंकिंग यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के डीन वांग जिसि ने कहा है कि चीन के नेता माओ त्से तुंग ने 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध का आदेश दिया था ताकि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी पर उनकी पकड़ बनी रहे। वांग चीनी विदेश मंत्रालय की नीति सलाहकार समिति के भी सदस्य हैं। वांग ने कहा कि खेती आधारित से आधुनिक समाज बनाने का माओ का अभियान 'ग्रेट लीप फारवर्ड' संकट में तब्दील हो गया। हिंसा में लाखों लोगों की जान गई। वांग ने कहा कि इस स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी में माओ की स्थिति कमजोर हो गई। तब सेना पर अपनी पकड़ मजबूत दिखाने के लिए उन्होंने तिब्बत रेजीमेंट के सेना के कमांडर को बुलाया। उससे पूछा कि क्या भारत से युद्ध जीत सकते हो। उसने कहा निश्चित तौर पर। इस पर माओ ने हरी झंडी दे दी। वांग का यह कहना भी है कि युद्ध का सीमा विवाद से कोई संबंध नहीं था। दोनों देशों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए उन्होंने यथास्थिति पर समझौता करने की सलाह दी गई थी।
 
इस दावे के बाद भी आज तक यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आखिर किस वजह से दोनों देशों के बीच जंग हुई।
...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
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सितंबर-अक्टूबर, 1962 में कैसी थी हलचल?
सितंबर-अक्टूबर, 1962 में भारत में कैसी हलचल थी? यह अहम सवाल है। तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन 17 सितंबर, 1962 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा की बैठक में हिस्सा लेने अमेरिका चले गए और 30 सितंबर को भारत लौटे। नेहरू 8 सितंबर, 1962 को कॉमनवेल्थ देशों के प्रधानमंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने गए। पेरिस, लागोस और अकरा का दौरा करने के बाद 2 अक्टूबर, 1962 को भारत लौटे। सेना मुख्यालय में बैठने वाले दो अहम अधिकारी भी दिल्ली में नहीं थे। चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल कौल 2 अक्टूबर, 1962 तक कश्मीर में छुट्टियां मना रहे थे। जबकि तत्कालीन डायरेक्टर ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन (डीएमओ) एयरक्राफ्ट कैरियर 'विक्रांत' में क्रूज पर थे।
 8 सितंबर, 1962 को ही चीन ने एक तरह से युद्ध की शुरुआत कर दी थी। पीएलए ने नाकमा चू के उत्तर में मौजूद सेनजंग में मौजूद एक छोटी भारतीय चौकी को चारों तरफ से घेर लिया था। यह चौकी विवादास्पद थागला रिज के ठीक नीचे थे जो भारत-भूटान-तिब्बत की सीमा पर मौजूद था। इस चौकी की स्थापना भारत ने अपनी फॉरवर्ड नीति के तहत की थी। भारत ने यह नीति भारत-चीन के बीच सीमा विवाद के शुरू होने के बाद अपनाई थी। सेनजंग का सामरिक और रणनीतिक महत्व था। सेनजंग पर कब्जा कर चीन ने भारत की तरफ एक फंदा फेंका था, जिसमें भारतीय सेना 20 अक्टूबर-28 अक्टूबर, 1962 के बीच उलझकर रह गई।  
इसे भारत की कूटनीतिक नाकामी ही कहा जाएगा कि चीन रूस और अमेरिका को औपचारिक तौर पर यह समझाने में कामयाब हो गया कि भारत चीन पर हमला करने की योजना बना रहा है। चीन के कहने पर रूस ने नेहरू को चिट्ठी भी लिखी थी कि वे चीन को लेकर अपने आक्रामक रवैये को बदलें और चीन की योजना के मुताबिक सुलह करें। चीन ने अमेरिका के साथ भी कूटनीतिक संपर्क साधकर उसे भी तटस्थ रहने के लिए राजी कर लिया। रूस और अमेरिका को कूटनीतिक ढंग से न्यूट्रल करने के बाद चीन ने 9 अक्टूबर, 1962 को तिब्बत की राजधानी ल्हासा में मौजूद भारतीय दूतावास के संचार तंत्र को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। भारतीय मिशन में काम कर रहे तिब्बती स्टाफ को पूरी तरह से हटा दिया गया। इसी तरह से बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास के संचार तंत्र को ठप कर दिया गया। भारत लौटने पर भारतीय युद्धबंदियों ने बताया कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने तिब्बत में ऐसे अनुवादक नियुक्त कर रखे थे, जो सभी मुख्य भारतीय भाषाएं जानते थे। युद्धबंदियों ने यह भी बताया था कि चीनी सेना ने हमले के लिए कितनी पुख्ता तैयारी की थी। चीन ने भारत-चीन सीमा के सभी सेक्टरों पर एक साथ 20 अक्टूबर, 1962 की सुबह 5 बजे हमला कर दिया। कोरिया युद्ध से तजुर्बा हासिल कर चुके सैनिकों से भरी चीन की तीन रेजिमेंट 154, 155 और 157 के जवानों ने नामका चू नाम की जगह पर हमला किया। यहां भारत की एक ब्रिगेड तैनात थी। लेकिन भारतीय ब्रिगेड हमला झेल नहीं सकी। इसी तरह से पश्चिमी और पूर्वी सेक्टरों पर भी चीन ने जोरदार हमला किया।
...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
नतीजा
3225 किलोमीटर लंबी सीमा से संबंधी विवाद बातचीत से न सुलझने पर चीन ने 20 अक्टूबर 1962 को भारत पर हमला बोला था। जंग ज़्यादातर अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चिन के इलाके में लड़ी गई। महज 8 दिन ही चले इस युद्ध में भारत को मुंहकी खानी। 28 अक्टूबर, 1962 को भारत के आत्मसमर्पण के बाद युद्ध समाप्ति की घोषणा हुई। युद्ध में भारत के 1383 सैनिक मारे गए थे जबकि 1047 घायल हुए थे। 1696 सैनिक लापता हो गए थे और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार कर लिया था। वहीं, चीन के कुल 722 सैनिक मारे गए थे और 1697 घायल हुए थे। चीन ने गिरफ्तार भारतीय सैनिकों के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया और छीने गए हथियार भी लौटा दिए थे। इस जंग में जम्मू-कश्मीर का 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (तस्वीर में जिन इलाकों में लाल रंग में दिखाया गया है, उन पर चीन ने 62 में कब्जा कर लिया था)
में फैला जमीन का टुकड़ा चीन के कब्जे में चला गया। इसके अलावा पाकिस्तान ने तथाकथित चीन-पाकिस्तान सीमा समझौते के तहत 5,180 वर्ग किमी क्षेत्र की भारतीय जमीन भी चीन को दे रखी है। अरुणाचल प्रदेश में 90 हजार वर्ग किमी भारतीय भूमि पर भी चीन अपना अवैध दावा करता है। इसी युद्ध के बाद से ही अक्साई चिन पर चीन अपना अधिकार जताता रहा है। वहीं, अरुणाचल प्रदेश को भी वह चीन का ही एक हिस्सा मानता है। इस युद्ध के बाद रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। नेहरू के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी नाकामी के तौर पर भी चीन के युद्ध को देखा जाता है।
...जब स्‍टेट बैंक ने जला दिए थे अपने नोट, भारत ने तेल में भी लगा दी थी आग
आजाद भारत का सबसे बड़ा राज है हर्डर्सन-भगत रिपोर्ट!
आज़ाद भारत के सबसे बड़े रहस्यों में वह रिपोर्ट भी है, जिसे चीन से मिली हार के कारणों का पता लगाए जाने के लिए तैयार करवाया गया था।
1962 में चीन के हाथों करारी हार की समीक्षा करने के लिए हर्डर्सन ब्रूक्स और पीएस भगत की कमेटी का गठन किया गया था। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट जुलाई 1963 को तत्‍कालीन रक्षा मंत्री वाई बी चव्‍हाण को सौंप दी थी। लेकिन युद्ध के 50 साल बाद भी देश यह नहीं जान पाया है कि इस रिपोर्ट में क्या लिखा था? वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने इस रिपोर्ट की जानकारी हासिल करने के लिए सूचना के अधिकार का प्रयोग किया। उन्हें यह रिपोर्ट नहीं सौंपी गईं, मामला केंद्रीय सूचना आयोग तक पहुंचा लेकिन फैसला सरकार के पक्ष में आया। फिलहाल, कुलदीप नैयर दिल्ली हाईकोर्ट में इस रिपोर्ट को पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुलदीप नैयर कहते हैं कि उन्हें हाईकोर्ट से भी कोई खास उम्मीद नहीं है और वे अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। रिपोर्ट सार्वजनिक न किए जाने पर कुलदीप कहते हैं, 'युद्ध को 50 साल हो गए हैं, देश को यह जानने का अधिकार है कि भारत को इतनी शर्मिंदगी क्यों झेलनी पड़ी थी।' 1962 के युद्ध में भारत की हार के कारणों का खुलासा करने वाली इस रिपोर्ट को सार्वजनिक न किए जाने के संबंध में रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने साल 2008 में लोकसभा में कहा था कि हर्डर्सन-भगत रिपोर्ट को इसलिए डिक्लासिफाई नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बहुत ही संवेदनशील है और वर्तमान में भी यह महत्वपूर्ण है। हालांकि, 1993 में भारत सरकार ने चीन युद्ध के कारणों और नतीजों को लेकर एक अलग रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जो सार्वजनिक कर दी गई थी।--साभार---दैनिक भास्कर 

 







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