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क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत

“ क्षेत्रीय सुरक्षा , शांति और सहयोग की प्रबल संभावना – चीथड़ों में लिपटी पाकिस्तान की राष्ट्रीयत ा “ —गोलोक विहारी राय पिछले कुछ वर्षों...

Thursday, 28 December 2017

संवेदना से परे चौकाचौंध

एक वे भी दिन थे
जब कभी
हर शाम मेरे गाँव में
अंडी के तेल के दिये
छोटी सी ढिबरी या
लालटेनें जला करती थी
पर बिजली से
आज रौशन है, कहीं अँधेरा
दिखता नहीं
मगर लोंगों के चेहरे
जितने स्पष्ट थे तब
उस खाँसती बूढ़ी दादी का
डंडे टेककर चलते
बड़े बुजुर्गों का
आज न शिकन दिखती है
न आँखों के अन्दर का
एहसास
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Friday, 22 December 2017

सर्दियों की रात

सुबह या शाम
रेत के सिंदूरी टीले पे
उतरने लगीं कोमल बूँदें
पर्वतों के पार
उभरी उजली सी मुस्कान
दूर कहीं पानी मे लिया विश्राम
थक के सूरज के अश्व ने
मुंडेर लौटते
पंखेरुओं की हर्षित ध्वनि
खींच लाई
धुएँ की लकीर गगन में
चूल्हे पे उबलते भात ने
खुदबुदा के कहा
सर्दियों की संध्या में
ये तपिश सुहावनी है
ठंडी होती बोरसी की आग
खोरने पर बोल पड़ी
पुष की रात में
मेरी जलन भी
जीवन दायिनी है
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Thursday, 14 December 2017

“गीता” : एक ‘मानवीय ग्रंथ’ … एक ‘समग्र जीवन दर्शन’ … व ‘मानव समाज की अप्रतिम धरोहर’

           


"गीता” का शाब्दिक अर्थ केवल गीत अर्थात् जो गाया जा सके से लिया जाता है । किन्तु आतंरिक रूप से इसका अर्थ है कि जिसने अपने गीत को पा लिया है, स्वयं के छन्द को जान लिया है, स्वच्छंद हो गया है । माना जाता है कि पूर्व अध्यात्म की यात्रा पर ध्यान केन्द्रित करता है और पश्चिम विज्ञान की । किन्तु सत्यता इससे भी गूढ़ है । गीता के द्वारा मनुष्य अध्यात्म और विज्ञान, दोनों ही की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है ।

‘गीता’ किसी विशेष धर्म या संप्रदाय की पुस्तक नहीं है ।अपितु यह एक एक जीवंत ग्रन्थ है। जिसका दृष्टिकोण विश्चजनीन है| ज्ञान-यज्ञ का यह ग्रन्थ मानव-मात्र के हित के लक्ष्य से प्रेरित है। आज ‘योग’ जिस तरह पतंजलि के सूत्रों के कारण,भारत और हिन्दू धर्म की परिधि में सीमित न रहकर सम्पूर्ण संसार में ग्राह्य हो गया है, उसी तरह ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ भी अपने देश-काल को लाँघकर सम्पूर्ण विश्व की वैचारिक संपत्ति बन गई है । अध्यात्म और कर्म अथवा निवृत्ति एवम् प्रवृत्ति के द्वंद को समाहित करनेवाली यह कृति मानव-जीवन की चरितार्थता की खोज करती है । चतुर्दिक व्याप्त संघर्ष और दिग्भ्रम के वातावरण में इसकी उपयोगिता एक औषधि की तरह है।
महाभारत के अंत में एक विशेष प्रसंग आता है जहाँ अर्जुन कृष्ण से पुनः गीता सुनाने को कहते हैं, क्योंकि जो ज्ञान दिया गया था, अर्जुन को उसकी विस्मृति हो गई थी । तब कृष्ण कहते हैं-
‘‘न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमषेशत: ।
परं हि ब्रह्म कथितं योग युक्तेन तन्मया ॥
(महा/अश्‍वमेधिकपर्व/अनुगीता/अध्याय १६)
अर्थात् वह उपदेश, उसी रूप में दोहराना मेरे वश में नहीं; क्योंकि उस समय, योगयुक्त होकर मैंने उस ब्रह्मविद्या का वर्णन किया था|
इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि गीता का सम्पूर्ण ज्ञान ध्यान की उच्च अवस्था में प्रदान किया गया था । अतः ध्यान के द्वारा प्राप्त गीता का ज्ञान मानव कल्याण के लिए ही उत्पन्न हुआ है ।

कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में विषादग्रस्त अर्जुन को मोह और अवसाद से मुक्त किया था। आज भी ‘महाभारत’ चल रहा है । लोग किंकर्तव्य विमूढ़ हैं । वे कर्म और उद्देश्य से कटकर निरर्थक विचारों के ऊहापोह में डूब गए हैं । ऐसे संशयग्रस्त समय में ‘गीता’ मार्गदर्शिका के रूप में सामने है । अनिर्णय में झूलनेवाले का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है । मानसिक दृष्टि से टूटे हुए लोग समाज, देश और संसार का कल्याण नहीं कर सकते हैं । ‘गीता’ उन भग्नचित व्यक्तियों का उपचार करने में समर्थ है।

‘महाभारत’ का ‘अन्धायुग’ अभी समाप्त नहीं हुआ है । सत्तासीन जन धृतराष्ट्र की तरह बेचारे हैं।वे केवल निष्क्रिय बुद्धिजीवी संजय से ‘कुरुक्षेत्र’ की कथा पूछते हैं।नारी-शक्ति के नेत्रों पर गांधारी की पट्टी बँधी हुई है।अनेक झंडे उड़ रहे हैं।वाहनों की विपुलता है।विविध शंखध्वनियाँ गूँज रही हैं।गांडीव का गौरव गल रहा है।अर्जुन अवसन्न है। द्वापर का यह दृश्य सर्वत्र देखा जा सकता है।मनुष्यता को मार्ग नहीं मिल रहा है।ऐसी स्थिति में ‘गीता’ के संदेशों की प्रासंगिकता सभी देशों में अनुभूत ही रही है।

‘गीता’ आकारतः छोटी पुस्तक है, किन्तु उसकी लपेट में सम्पूर्ण त्रिलोक और त्रिकाल है। जिस तरह कृष्ण की विभूतियॉं सर्वत्र फैली हुई हैं और उनके विराट रूप में सब-कुछ समाविष्ट है उसी तरह ‘गीता’ विविध विचारों के बीच संतुलन के उस सेतु की प्रतीति कराती है, जिस पर सभी रंगों, नस्लों, और राष्ट्रों के लोंगों को चलने की स्वतंत्रता है।

‘गीता’ जहाँ एक ओर काव्य प्रतीत होती है वहीँ दूसरी ओर समाज के यथार्थ को संबोधित भी करती है | सभी के प्रश्नों की उत्तर-कुंजिका है यह । प्रश्न चाहे निजी हो, सत्ता का हो, विज्ञान का हो, आधुनिकता का हो, श्रद्धा व विशवास का हो अथवा अध्यात्म के रस से परिपूर्ण हो- उत्तर गीता में दृष्टव्य है । इसी कारण से यह ग्रन्थ किसी कवि के द्वारा लिखी गई निजी संपत्ति नहीं है अपितु मानव सभ्यता की सम्पति होती है । जिस तरह शेक्सपियर केवल इंगलैण्ड के नहीं हैं और तुलसीदास पर हिन्दी का ही हक़ नहीं है उसी तरह ‘व्यास’ एवम् ‘गीता’ को हम केवल संस्कृत तथा भारत से जोड़ने का अपराध नहीं कर सकते हैं । विश्व की साझी विरासत के रूप में ‘गीता’ की महत्ता अक्षुण्ण है । अध्यात्म के फलक पर लोक-शिक्षण की इस रचना में उपनिषदों का पोषक दुग्ध संचित है । इस वैचारिक आहार पर हिन्दू,जैन,बौद्ध, यहूदी, मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि सभी समुदायों का अधिकार है।इसका काव्यत्व सबके लिए आधारक और तोषप्रद है। निश्चय ही पूरी मानवता इससे प्रेरणा ले सकती है।

अल्प शब्दों में कहें तो ‘गीता’ एक “मानवीय-ग्रन्थ” है और एक सार्वजनीन “समग्र मानवीय जीवन-दर्शन” भी है।

यद्यपि “गीता” की व्यापकता, प्रभाव व संस्कार मानव जीवन में असीमित व अनन्त है ।”गीता” की सार्वभौमिकता व सर्वव्याप्तता को ध्यान में रख आज एक सीमित परिचर्चा निम्नांकित विषयों पर की जा सकती है।
राष्ट्रिय / सामाजिक / वैयक्तिक जीवन के विभिन्न पहलुओ पर चंद निम्न श्लोक पूर्ण मार्ग दर्शन करते है जो हर स्तर के प्रबंधन की सम्पूर्ण कुंजी है.
Geeta is a management gospel covering every aspect of life, be it national level, society level or individual level. It gives the direction to handle various aspects of life and provides guidelines for every individual in respect of his duties and rights.

1. Good Governance and social setup
सुसाषन वैयक्तिक लक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था – गीता श्लोक 3.21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३- २१॥

2 . Duties of state towards law and order for the benefit of society
समाज विधायक निति और उसका उद्देश्य
गीता श्लोक 4.8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

3 . Self-development and its role in social order
नागरिक जीवन का चरमोत्कर्ष एवं सामाजिक व्यवस्था में उसका योगदान – गीता 6.5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥६- ५॥

4. Doctrine of right to act and concept of freewill
स्वतन्त्र समाज में वैयक्तिक अधिकार – गीता 2.47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥२- ४७॥
5. Philosophy of detachment in life as attachment leads to unrest
तृष्णा एवं लालसा से सामाजिक अव्यवस्था व असहिष्णुता का जन्म – गीता 2.62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥
6.– Fallacy in change of religion – clear guideline
धर्मं परिवर्तन एक अनावश्यक व अवनति का मार्ग – गीता 3.35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥

7. Law of co-existence and concept of brotherhood – Live and let live
वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत – गीता 6. 30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६- ३०॥

8. No place for ill will in society
भारतीय सामाजिक व्यवस्था ईर्ष्या व द्वेष का स्थान नहीं – गीता 5.3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५- ३॥

9. Ideal living order for individuals
आदर्श जीवन व्यवस्था – गीता 2.38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥२- ३८॥

आई आई एम से लेकर दूसरे मैनेजमेंट स्कूल्स तक में गीता को प्रबंधन की किताब के रुप में पहचान मिली है। गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं और जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा रही है। कुरुक्षेत्र में युद्ध के मुहाने पर खड़ी कौरवों और पांडवों की सेना के बीच भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया वो गीता माना गया है।
आखिर गीता में ऐसा क्या है जो उसे इतना पढ़ा जाता है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के सामने आती है। आज हम आपको गीता के कुछ चुनिंदा प्रबंधन सूत्रों से रू-ब-रू होते हैं-

श्लोक-
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र – धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

श्लोक-
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।
योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।
मैनेजमेंट सूत्र – हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो, इसके लिए वह भटकता रहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना ( आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्त होगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

श्लोक-
विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।
मैनेजमेंट सूत्र – यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

श्लोक-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।
मैनेजमेंट सूत्र – बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे, तो ये हमारी मूर्खता है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रुप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी। और उसका परिणाम भी मिलेगा ही। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

श्लोक-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
मैनेजमेंट सूत्र- श्रीकृष्ण अर्जुन को माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना। जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिए।

श्लोक-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र- यहां भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी की नकल करेंगे। जो कार्य श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन उसी को अपना आदर्श मानेंगे। उदाहरण के तौर पर अगर किसी संस्थान में उच्च अधिकार पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां के दूसरे कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे।

श्लोक-
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।
मैनेजमेंट सूत्र – ये प्रतिस्पर्धा का दौर है, यहां हर कोई आगे निकलना चाहता है। ऐसे में अक्सर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर लोग अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं या काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भर देते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है। संस्थान में उसी का भविष्य सबसे ज्यादा उज्जवल भी होता है।

श्लोक-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
मैनेजमेंट सूत्र- इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं। उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए भगवान ने उसे मृत्यु प्रदान की। हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए जिस रुप में हम उसे पाना चाहते हैं।

श्लोक-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
मैनेजमेंट सूत्र- भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकार अपना काम करते रहो। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।

19/11/2015
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Tuesday, 12 December 2017

अतिवाद की जड़ में - सामाजिक , आर्थिक विषमता

आज नक्सलवाद सह माओवाद देश के विकास की धारा को अवरुद्ध कर खड़ा है। देश में एक बड़े भू-भाग में इस माओवाद के कारण विकास योजनाएँ ठप्प है। फिर उन क्षेत्रों में विकास के नाम पर राजनेता-प्रशासन एवं अतिवादि माओवादियों का संगठित तंत्र लूट मचाये हुए है। इसकी मूल समस्या विकास ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक विषमता हैं। स्वाभाविक रूप से सोचना होगा। जिस जमीन पर हम और हमारे पुरखे रहते आये, जिस पर कृषि करते आयें, जीविकोपार्जन के लिए जिस भूमि का उपयोग करते आये। वह जमीन आज हमारे नाम पर बंदोबस्त है। जो आगे हमारी पीढ़ी को भी उपलब्ध रहेगी। वहीँ पर वनवासी जो पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल में बसते रहे। जंगल ही उनका जीविकोपार्जन का साधन रहा पर आज भी उनके मकान के लिए भी जमीन बंदोबस्त नहीं हुई। उनके जीविकोपार्जन के लिये जंगल की जमीन और सम्पदा दोनों से वंचित कर दिया गया। जब भी कोई बड़ा उद्योग खड़ा करने के नाम पर, खनन के नाम पर वनवासियों को विस्थापित तो कर दिया जाता है, पर दशकों बाद भी विस्थापन की समस्या का समाधान हमारा तंत्र नहीं कर पाता है। हजारों लाखों वनवासी आज विस्थापन के मार से जूझ रहे हैं। उनको पुर्नवास आज कई दशकों बाद भी नहीं हो पाया। केवल सरकारी फाइलों में समस्या इस टेबल से उस टेबल घूमती रही। जिस सर्वे ने हमारी उपयोग की जमीन को हमारें नाम पर बंदोबस्त किया। क्या वही सर्वे उन वनवासियों के वास व जीविकोपार्जन की लिए पीढ़ी दर पीढ़ी उनके उपयोग में आती रही जंगल की जमीन को उनके नाम बंदोबस्त कर सकता था ? इसमें उन वनवासियों का क्या दोष ? यह कौन सा न्याय है कि जिस वन सम्पदा के प्रभाव से हमारी सड़के कंक्रीट की बन रही है, हमारे शहर के पुल और फ्लाई ओवर लाखों टन लोहा लगा के खड़े हो रहे हैं।हमारी इमारते उसी वन सम्पदा के लोहा, कंकड़, रेत से चमचमा रही हैं। इन सारी सुख सम्पदा की उपलब्धता वही जंगल वन व पहाड़ है। क्या इस चकाचौंध की दुनिया व अपनी उजड़ी जिंदगी को देखकर उन वनवासियों के मान में यादे कोई विक्षोभ पैदा होता है तो इसका कारण सामाजिक-आर्थिक विषमता को पोषण करनेवाली हमारी नीतियाँ है। जो नक्सलवाद, माओवाद व अतिवाद का कारण बन रही है। शहरी-मैदानी भाग में रहनेवाले लोगों, आधुनिक जीवन जीने वाले लोगों से अलग-अलग रहना आदिवासियों के जीवन का एक अनूठा पहलू है | अपने इसी स्वभाव के कारण वे अपने जातीय-सांस्कृतिक गुण को कायम रख सके हैं। प्राकृतिक वातावरण विशेषतः जंगल से इनका अन्योंन्याश्रय संबंध है परन्तु भारत में उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद वनवासियों को राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक रूप से आधुनिक समाज से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। इस मिश्रण ने न केवल उनकी शांत और स्वच्छंद जीवन शैली को बाधित किया बल्कि वर्तमान वनवासी समाज में गरीबी, बेरोजगारी आदि को भी जन्म दिया जो जनजातियों के जीवन में शोषण का भी कारण बना। ये समस्याएँ वनवासी समाज के पारंपरिक जीवन शैली में क्षय और जनजातीय समुदायों के अस्मिता, स्वत व पहचान खो देने का कारण बनी। वनवासियों के मानवाधिकारों, जीवन मूल्यों संबंधी मुद्दों के विश्लेषण की शुरुआत हम भूमि विभाजन से कर सकते हैं। संचार और विकास हेतु सरकारें एवं अन्य संस्थाओं द्वारा वनवासी भूमि का अधिग्रहण तथा भूमि कानून में त्रुटी की वजह से वनवासी भूमि का विभाजन हो गया और ये अपनी सम्पदा खो बैठे। भूमि आधिपत्य की यह नई प्रणाली वनवासियों के समाजिक-आर्थिक ढांचे को जड़ से बदल दिया और गैर जनजातीय लोगों का जनजातीय क्षेत्रों में अतिक्रमण होने लगा।
वनवासियों के अस्मिता व स्वत का दूसरा अहम् मुद्दा है जंगल के साथ उनका अन्योन्याश्रय संबंध। पारंपरिक रूप से जंगल और वन-भूमि ही जनजातीय लोगों का आश्रय था और जीविकोपार्जन का माध्यम भी। धीरे-धीरे प्राकृतिक संसाधन के नाम पर जंगल का रख-रखाव सरकार ने अपने हाथों में ले लिया और जनजातीय तथा सरकार के बीच लगातार एक तनाव का माहौल बनता गया। सरकार ने इस बात की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि जंगल जनजातियों की सामाजिक प्रथा और रीति-रिवाज का केंद्र बिंदु रहा है।
वन क्षेत्र पर अपना अधिकार खोने के बाद जनजातियों की जीविका, संसाधन छिन गई और वे गरीबी, भूखमरी तथा आश्रय विहीनता की ओर धकेल दिये गये। यह मात्र दो उदाहरणों से पूर्ण स्पष्ट है कि जहाँ तेंदू पत्ता जंगल में उपलब्ध होता है। जिसका एक बहुत बड़ा बाजार सदियों से है। उस पत्ते को तोड़ने की नीलामी सरकार करने लगी। बड़े-बड़े टेंडर होने लगे। ठीकेदार तेंदू पता आज उन्ही वनवासियों से तुडवाता है। अर्थात् अब वे इस कार्य में एक मजदूर बन के रह गये | जबकि वह पत्ता गैर नीलामी किये हुए वनवासियों से भी खरीदा जा सकता था | जंगल के सूखे पेड़ व गिरे पेड़ के लकड़ियों से वनवासी अपना रहने लायक मकान बनाता था और बड़े ही आनंद से रहता था। पर आज वन संरक्षण के नाम पर सूखे-गिरे पेड़ की लकड़ियों का स्वामित्व अब वन विभाग का हो गया। अब वे अपने मकान बनाकर रहने के लिए अपने नीज के संसाधन से भी वंचित हो गये। आज वन विभाग इन लकड़ियों को एकत्रित कर शहर के आधुनिक लोगों के उपयोग के लिए नीलामी करता है। स्वाभाविक है अपने अधिकार को खो देने व दूसरों के हाथों जाते देख आक्रोश तो होगा ही | जनजातिय समाज पहले भोजन के लिये खेती करते थे, लेकिन अब उसी जमीन में गैर जनजातीय लोगों द्वारा पैसे के लिए अनाज उगाने लगे। जो वनवासियों से छिनकर गैर जनजातियों को नया बंदोबस्त कर दिया गया।
जिन मुद्दों पर नक्सलवाद आंदोलन आज से चार दशक पहले प्रारंभ हुआ था, वे मुद्दे यानि जमीन का अधिकार, भूख का मर्म, वेदना व दर्द आज भी जिन्दा है। उससे भी बड़ी बात उन वनवासियों की जीवन शैली जो आधुनिक जीवन शैली से बहुत ही अलग स्वच्छंद है उसे एक सिरे से नकार देना। जबकि यही जनजातीय समाज शेष समाज से आगे बढकर अठारहवीं सदी के मध्य में ही हमारी जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए व हमारी स्वतंत्रता के लिए सिद्धू-कानू, विरसा मुंडा, तिलका झाँसी, दशरथ मांझी, गंगानारायण सिंह, ताना भगत आदि वीर योद्धाओं ने परतंत्रता की बेडी तोड़ देने के लिए उनके नेतृत्व में वृहद सतत आंदोलन तथा दिशा दिया। ये आंदोलन भारत में कंपनी राज के प्रारंभ से 1776 से ही शुरू हो गये थे। जिस समाज ने देश व समाज के लिए बलिदान देने की परंपरा में अग्र पंक्ति में खड़ा हुआ। वही आज हिंसा व अतिवाद के रास्ते पर चला गया। यह एक विचारणीय विषय है। इसकी जड़ में सामाजिक विषमता है। यह सामाजिक विषमता ही एक पुरे समाज को आर्थिक विषमता की ओर धकेल दिया। जिसका लाभ अलगाववादी सत्तालोलुप विदेशी विचारों से प्रभावित माओवादी लाभ उठाकर उसे अपने हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे है। ध्यान रहे कि माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व वनवासी नहीं हैं। बल्कि इस माओवादी अतिवादी का हथियार यन्त्र बन गया है। यह भी सर्वविदित है कि माओवादी आन्दोलन कोई व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन नहीं है। यह विशुद्ध रूप से सत्ता प्राप्ति का हिंसक अतिवादी आक्रमण है। यह हमारे लोकतंत्र व संस्कृति दोनों पर सीधा आक्रमण है। आज आवश्यकता है इस आक्रमण के हथियार – जो वनवासी, दलित व कमजोर वर्ग बन गया है, इसका निराकरण इस भ्रमित व ठगे गये हथियार रूपी वनवासी, दलित, व कमजोर समाज की सामाजिक विषमता को दूर कर ही किया जा सकता है।
शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विद्रोह के जनक कानू सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टव्यवस्था और पतित नैतिकमूल्यों के प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है …सरकार की भी और समाज की भी। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक है। यही कारण है कि किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं। ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस एड्स का रूप ले चुका है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में एक भृत्य से लेकर हमारा सम्पूर्ण नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। जब थैलियों के मुंह खुलते हैं तो बाकी सबके मुंह बन्द हो जाते हैं। थैलियों से सम्पन्न लोग अच्छी-खासी प्रतिभाओं को पीछे छोड़कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िले से लेकर लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठापूर्ण प्रतियोगिताओं में भी अपना वर्चस्व बना लेते हैं | …वह भी सारी व्यवस्था को अंगूठा दिखाते हुये। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसम्पदा से भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके हैं। सम्पन्न बस्तर आज भी लंगोटी लगाये खड़ा है। आतंकपूर्ण माओवाद पनपने के लिये इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं क्या?
नक्सलियों ने अब माओवाद का नक़ाब ओढ़ लिया है, उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नज़रबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती। किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है। शातिर अपराधी पत्नियों की आड़ में राज चला रहे हैं। कोई सज्जन व्यक्ति आज सत्ता में क्यों नहीं आना चाहता, यह देश के समक्ष एक विराट प्रश्न है। नक्सलवाद केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में फैल चुका है। किसी भी प्रकार की हिंसा करके या दूसरों के अधिकार के अपहरण से कुछ भी पाने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति मानसिक रूप से नक्सलीआतंकवादी है | क्योंकि ऐसे ही लोग उग्रवाद के अघोषित जनक होते हैं।
नक्सलियों से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है | जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को जीने न देने की कसम खाये बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गयी हिंसायें बहुआयामी होती हैं। प्राण भर नहीं जाते इसलिये दिखायी नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत श्रंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। हमारे ही बीच का कोई साधारण सा या कोई ग़रीब किंतु तिकड़मी व्यक्ति चुनाव में अनाप-शनाप पैसा खर्च करके चुनाव जीतता है। जीतने के कुछ ही वर्षों बाद कई नगरों और महानगरों में फैली करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। यह सर्वविदित होकर भी रहस्य ही बना रहता है कि उस ग़रीब के पास चुनाव में पानी की तरह बहाने के लिये इतना धन आख़िर आता कहाँ से है? जब उंगली उठती है तो निर्धन से अनायास ही सम्पन्न बना वह व्यक्ति चीखने-चिल्लाने लगता है कि सवर्णों को एक ग़रीब और दलित का सत्ता में आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। क्या यह ग़ुस्ताख़ी भी दोहरी हिंसा नहीं? निर्लज्जता की सारी सीमायें तो तब टूट जाती हैं जब वह करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी स्वयं को ग़रीब, दलित और आदिवासी ही घोषित करता रहता है।
भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही जाति और एक ही धर्म है। इसे भी समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा नक्सलवाद है जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुये होती है। पूरे देश में व्याप्त इन अत्याचारों का समुचित निदान किये बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी है।
भारत में नक्सलवाद ,परिवर्तित माओवाद – अतिवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो, वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी “सत्ता के लिये हिंसा” को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ही नक्सलियों की रक्तहिंसा की जननी है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण देती हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान तथा उनके जीवन शैली वह स्मिता-अस्तित्व की रक्षा का समान अवसर प्रदान कर दें, तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी।
सभ्यमानव समाज तो आत्मशासित होना चाहिये, जहाँ किसी शासन की आवश्यकता ही न हो। हो पायेगा ऐसा? सम्भवतः अभी तो नहीं। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज ख़रीद-फ़रोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं, जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं।
तमाम सरकारी व्यवस्थाएं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति, स्थानीय बाज़ारों एवं आवागमन पर यदा-कदा लगने वाले नक्सली कर्फ़्यू से आम जनता को होने वाली अनेक प्रकार की क्षतियों और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण :-
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार :- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव :- अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कानू सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।
3- शोषण की पराकाष्ठायें :- सामान्यतः आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं। नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।
4- सामाजिक विषमता :- सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।
5- जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका :- शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छा बहाना मिल जाता है।
6- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव :- आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
7- लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं कड़े कानून का अभाव :- अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव, विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।
8- आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा :- रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा, अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।
9- स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता :-निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी निरंकुश होते जा रहे हैं।
10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण :- देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना चुका है।
11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश की सुगमता :- विदेशों से आयातित उग्रविचारधारा को भारत में प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल रहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान :-
जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
1- नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास – क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
2- आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।
3- शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता – जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
4- समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
5- कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल – जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
6- आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था – जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
7- कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास – जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।
8- राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
9- चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।
16 अगस्त 2016
राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच की स्मारिका “राष्ट्र सुरक्षा कुम्भ” में प्रकाशितIMG_0067
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Saturday, 9 December 2017

विस्मृति

शब्द
जो बिछड़े थे किसी मोड़ पे
पंख लगा कर उड़ गये
शब्द जो साथ चले थे मेरे
वो थक गये... ठहर गये
शब्दों का होना अखरता है अब
शब्द राह तो रहे
पर मंज़िल न हुये
शब्दों को
लड़ना पसंद है...
मरना पसंद है
पर साथ जीना पसंद नही
कितने भोले हैं ये मेरे
शब्द
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यथार्थ का अंतर्मन

सिर पर मोरध्वज
अधरों पर मुरली
नंदलाल के मथुरा गमन पर
कान्हा की
एक हल्की सी मुस्कराहट पर
गोपियों के समूह से अलग
निमग्न हो खड़ी
राधा स्थिर चित हो
बोल पड़ी
" सुनो
जब तुम मुझे मुग्ध भाव से
देखते हो ना
मैं बिना श्रृंगार के ही
सुंदर हो जाती हूँ
मेरे जीवन में जितना
साथ है तुम्हारा है
बस
उतना ही हिस्सा जिया है मैंने

कि
जितनी तुम्हारे साथ चली
बस उतनी ही बही हूँ मैं
कि
जितनी बार तुम्हें देखा है
उतनी ही बार प्रेम किया है
तुमसे मैनें... "

एक लम्बी उच्छ्वास के साथ
राधा मनन कर रही
" तुम्हारा मेरा सम्बंध
इतना सा ही है
तुम मौन रहो
मै सुनती रहूँ
तुम विरक्त रहो
मै जुड़ती रहूँ
तुम सत्य उधेड़ो
मै स्वप्न बुनूँ
विपरीत किंतु साथ "

फिर तो
एक गहरी साँस भर
राधा फुट पड़ी
" हमारा रिश्ता
एक गहरी खाई पे
चरमराता हुआ
लटकता सा
एक पुल है
जिससे पार होना
नामुमकिन
खाई का भरना
असंभव
उम्मीद का दामन थामे
इसपार हम
उसपार तुम "
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Tuesday, 5 December 2017

एक वध और

अपनी भूख मिटाने के लिए
बाँस की कोपलों में
कुछ कीड़ों ने छेद कर दिये
उन छेदों से जब जब
हवा गुजरती
कोपलों का रोना सुनाई देता
उन कीड़ों को तो पता ही नहीं
बंशी बनाने के उपक्रम में
कि वे संगीत के सर्जन में
हस्तक्षेप कर रहे हैं

सम्यक विचारों को विस्तार दो
कहते ही चेहरा विदीर्ण हो उठता
नजरें नीचे झुका तिरछे देख
तुम्हारे होंठ फड़फड़ा जाते हैं
एक बध और
क्या यह अन्तिम है ?
इसके बाद
मेरी सोच काँप उठती है
मेरे विचार कुण्ठित हो उठते हैं
मैं वापस लेता हूँ
नहीं चाहिये तुम्हारा यह सहयोग
तुम्हारा यह साथ सहकर्म
जो केवल कुंठा व ईर्ष्या से
अपने को सिद्ध कर सकता है
एक अयोग्य, निरा शून्य
नहीं चाहिये वह विश्वास
जिसकी चरम परिणति
तुम्हारी द्वेष, जलन, ईर्ष्या हो
जहाँ कर्म, सामर्थ्य और पुरुषार्थ की
हत्या हो

मैं
अधिक सहिष्णु हूँ अपनी आस्था में
मैं
अधिक तपी हूँ अपने अकर्मों में
मैं
अधिक धार्मिक हूँ अपनी नास्तिकता में
मैं
अधिक सरल हूँ अपनी कठोरता में
मैं
अधिक उदार हूँ अपनी उदासी में
मैं
अधिक मुक्त हूँ अपनी अकेलेपन में
नहीं चाहिये तुम्हारी शोहरत, जो
लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, चाटुकारिता
दलाली के रंग से तुम पाये हो
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