एक वे भी दिन थे
जब कभी
हर शाम मेरे गाँव में
अंडी के तेल के दिये
छोटी सी ढिबरी या
लालटेनें जला करती थी
पर बिजली से
आज रौशन है, कहीं अँधेरा
दिखता नहीं
मगर लोंगों के चेहरे
जितने स्पष्ट थे तब
उस खाँसती बूढ़ी दादी का
डंडे टेककर चलते
बड़े बुजुर्गों का
आज न शिकन दिखती है
न आँखों के अन्दर का
एहसास
जब कभी
हर शाम मेरे गाँव में
अंडी के तेल के दिये
छोटी सी ढिबरी या
लालटेनें जला करती थी
पर बिजली से
आज रौशन है, कहीं अँधेरा
दिखता नहीं
मगर लोंगों के चेहरे
जितने स्पष्ट थे तब
उस खाँसती बूढ़ी दादी का
डंडे टेककर चलते
बड़े बुजुर्गों का
आज न शिकन दिखती है
न आँखों के अन्दर का
एहसास
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