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Friday 22 December 2017

सर्दियों की रात

सुबह या शाम
रेत के सिंदूरी टीले पे
उतरने लगीं कोमल बूँदें
पर्वतों के पार
उभरी उजली सी मुस्कान
दूर कहीं पानी मे लिया विश्राम
थक के सूरज के अश्व ने
मुंडेर लौटते
पंखेरुओं की हर्षित ध्वनि
खींच लाई
धुएँ की लकीर गगन में
चूल्हे पे उबलते भात ने
खुदबुदा के कहा
सर्दियों की संध्या में
ये तपिश सुहावनी है
ठंडी होती बोरसी की आग
खोरने पर बोल पड़ी
पुष की रात में
मेरी जलन भी
जीवन दायिनी है

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