आज नक्सलवाद सह माओवाद देश के विकास की धारा को अवरुद्ध कर खड़ा है। देश में एक बड़े भू-भाग में इस माओवाद के कारण विकास योजनाएँ ठप्प है। फिर उन क्षेत्रों में विकास के नाम पर राजनेता-प्रशासन एवं अतिवादि माओवादियों का संगठित तंत्र लूट मचाये हुए है। इसकी मूल समस्या विकास ही नहीं, सामाजिक-आर्थिक विषमता हैं। स्वाभाविक रूप से सोचना होगा। जिस जमीन पर हम और हमारे पुरखे रहते आये, जिस पर कृषि करते आयें, जीविकोपार्जन के लिए जिस भूमि का उपयोग करते आये। वह जमीन आज हमारे नाम पर बंदोबस्त है। जो आगे हमारी पीढ़ी को भी उपलब्ध रहेगी। वहीँ पर वनवासी जो पीढ़ी दर पीढ़ी जंगल में बसते रहे। जंगल ही उनका जीविकोपार्जन का साधन रहा पर आज भी उनके मकान के लिए भी जमीन बंदोबस्त नहीं हुई। उनके जीविकोपार्जन के लिये जंगल की जमीन और सम्पदा दोनों से वंचित कर दिया गया। जब भी कोई बड़ा उद्योग खड़ा करने के नाम पर, खनन के नाम पर वनवासियों को विस्थापित तो कर दिया जाता है, पर दशकों बाद भी विस्थापन की समस्या का समाधान हमारा तंत्र नहीं कर पाता है। हजारों लाखों वनवासी आज विस्थापन के मार से जूझ रहे हैं। उनको पुर्नवास आज कई दशकों बाद भी नहीं हो पाया। केवल सरकारी फाइलों में समस्या इस टेबल से उस टेबल घूमती रही। जिस सर्वे ने हमारी उपयोग की जमीन को हमारें नाम पर बंदोबस्त किया। क्या वही सर्वे उन वनवासियों के वास व जीविकोपार्जन की लिए पीढ़ी दर पीढ़ी उनके उपयोग में आती रही जंगल की जमीन को उनके नाम बंदोबस्त कर सकता था ? इसमें उन वनवासियों का क्या दोष ? यह कौन सा न्याय है कि जिस वन सम्पदा के प्रभाव से हमारी सड़के कंक्रीट की बन रही है, हमारे शहर के पुल और फ्लाई ओवर लाखों टन लोहा लगा के खड़े हो रहे हैं।हमारी इमारते उसी वन सम्पदा के लोहा, कंकड़, रेत से चमचमा रही हैं। इन सारी सुख सम्पदा की उपलब्धता वही जंगल वन व पहाड़ है। क्या इस चकाचौंध की दुनिया व अपनी उजड़ी जिंदगी को देखकर उन वनवासियों के मान में यादे कोई विक्षोभ पैदा होता है तो इसका कारण सामाजिक-आर्थिक विषमता को पोषण करनेवाली हमारी नीतियाँ है। जो नक्सलवाद, माओवाद व अतिवाद का कारण बन रही है। शहरी-मैदानी भाग में रहनेवाले लोगों, आधुनिक जीवन जीने वाले लोगों से अलग-अलग रहना आदिवासियों के जीवन का एक अनूठा पहलू है | अपने इसी स्वभाव के कारण वे अपने जातीय-सांस्कृतिक गुण को कायम रख सके हैं। प्राकृतिक वातावरण विशेषतः जंगल से इनका अन्योंन्याश्रय संबंध है परन्तु भारत में उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद वनवासियों को राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक रूप से आधुनिक समाज से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। इस मिश्रण ने न केवल उनकी शांत और स्वच्छंद जीवन शैली को बाधित किया बल्कि वर्तमान वनवासी समाज में गरीबी, बेरोजगारी आदि को भी जन्म दिया जो जनजातियों के जीवन में शोषण का भी कारण बना। ये समस्याएँ वनवासी समाज के पारंपरिक जीवन शैली में क्षय और जनजातीय समुदायों के अस्मिता, स्वत व पहचान खो देने का कारण बनी। वनवासियों के मानवाधिकारों, जीवन मूल्यों संबंधी मुद्दों के विश्लेषण की शुरुआत हम भूमि विभाजन से कर सकते हैं। संचार और विकास हेतु सरकारें एवं अन्य संस्थाओं द्वारा वनवासी भूमि का अधिग्रहण तथा भूमि कानून में त्रुटी की वजह से वनवासी भूमि का विभाजन हो गया और ये अपनी सम्पदा खो बैठे। भूमि आधिपत्य की यह नई प्रणाली वनवासियों के समाजिक-आर्थिक ढांचे को जड़ से बदल दिया और गैर जनजातीय लोगों का जनजातीय क्षेत्रों में अतिक्रमण होने लगा।
वनवासियों के अस्मिता व स्वत का दूसरा अहम् मुद्दा है जंगल के साथ उनका अन्योन्याश्रय संबंध। पारंपरिक रूप से जंगल और वन-भूमि ही जनजातीय लोगों का आश्रय था और जीविकोपार्जन का माध्यम भी। धीरे-धीरे प्राकृतिक संसाधन के नाम पर जंगल का रख-रखाव सरकार ने अपने हाथों में ले लिया और जनजातीय तथा सरकार के बीच लगातार एक तनाव का माहौल बनता गया। सरकार ने इस बात की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि जंगल जनजातियों की सामाजिक प्रथा और रीति-रिवाज का केंद्र बिंदु रहा है।
वन क्षेत्र पर अपना अधिकार खोने के बाद जनजातियों की जीविका, संसाधन छिन गई और वे गरीबी, भूखमरी तथा आश्रय विहीनता की ओर धकेल दिये गये। यह मात्र दो उदाहरणों से पूर्ण स्पष्ट है कि जहाँ तेंदू पत्ता जंगल में उपलब्ध होता है। जिसका एक बहुत बड़ा बाजार सदियों से है। उस पत्ते को तोड़ने की नीलामी सरकार करने लगी। बड़े-बड़े टेंडर होने लगे। ठीकेदार तेंदू पता आज उन्ही वनवासियों से तुडवाता है। अर्थात् अब वे इस कार्य में एक मजदूर बन के रह गये | जबकि वह पत्ता गैर नीलामी किये हुए वनवासियों से भी खरीदा जा सकता था | जंगल के सूखे पेड़ व गिरे पेड़ के लकड़ियों से वनवासी अपना रहने लायक मकान बनाता था और बड़े ही आनंद से रहता था। पर आज वन संरक्षण के नाम पर सूखे-गिरे पेड़ की लकड़ियों का स्वामित्व अब वन विभाग का हो गया। अब वे अपने मकान बनाकर रहने के लिए अपने नीज के संसाधन से भी वंचित हो गये। आज वन विभाग इन लकड़ियों को एकत्रित कर शहर के आधुनिक लोगों के उपयोग के लिए नीलामी करता है। स्वाभाविक है अपने अधिकार को खो देने व दूसरों के हाथों जाते देख आक्रोश तो होगा ही | जनजातिय समाज पहले भोजन के लिये खेती करते थे, लेकिन अब उसी जमीन में गैर जनजातीय लोगों द्वारा पैसे के लिए अनाज उगाने लगे। जो वनवासियों से छिनकर गैर जनजातियों को नया बंदोबस्त कर दिया गया।
जिन मुद्दों पर नक्सलवाद आंदोलन आज से चार दशक पहले प्रारंभ हुआ था, वे मुद्दे यानि जमीन का अधिकार, भूख का मर्म, वेदना व दर्द आज भी जिन्दा है। उससे भी बड़ी बात उन वनवासियों की जीवन शैली जो आधुनिक जीवन शैली से बहुत ही अलग स्वच्छंद है उसे एक सिरे से नकार देना। जबकि यही जनजातीय समाज शेष समाज से आगे बढकर अठारहवीं सदी के मध्य में ही हमारी जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए व हमारी स्वतंत्रता के लिए सिद्धू-कानू, विरसा मुंडा, तिलका झाँसी, दशरथ मांझी, गंगानारायण सिंह, ताना भगत आदि वीर योद्धाओं ने परतंत्रता की बेडी तोड़ देने के लिए उनके नेतृत्व में वृहद सतत आंदोलन तथा दिशा दिया। ये आंदोलन भारत में कंपनी राज के प्रारंभ से 1776 से ही शुरू हो गये थे। जिस समाज ने देश व समाज के लिए बलिदान देने की परंपरा में अग्र पंक्ति में खड़ा हुआ। वही आज हिंसा व अतिवाद के रास्ते पर चला गया। यह एक विचारणीय विषय है। इसकी जड़ में सामाजिक विषमता है। यह सामाजिक विषमता ही एक पुरे समाज को आर्थिक विषमता की ओर धकेल दिया। जिसका लाभ अलगाववादी सत्तालोलुप विदेशी विचारों से प्रभावित माओवादी लाभ उठाकर उसे अपने हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे है। ध्यान रहे कि माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व वनवासी नहीं हैं। बल्कि इस माओवादी अतिवादी का हथियार यन्त्र बन गया है। यह भी सर्वविदित है कि माओवादी आन्दोलन कोई व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन नहीं है। यह विशुद्ध रूप से सत्ता प्राप्ति का हिंसक अतिवादी आक्रमण है। यह हमारे लोकतंत्र व संस्कृति दोनों पर सीधा आक्रमण है। आज आवश्यकता है इस आक्रमण के हथियार – जो वनवासी, दलित व कमजोर वर्ग बन गया है, इसका निराकरण इस भ्रमित व ठगे गये हथियार रूपी वनवासी, दलित, व कमजोर समाज की सामाजिक विषमता को दूर कर ही किया जा सकता है।
शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विद्रोह के जनक कानू सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टव्यवस्था और पतित नैतिकमूल्यों के प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है …सरकार की भी और समाज की भी। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक है। यही कारण है कि किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं। ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस एड्स का रूप ले चुका है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में एक भृत्य से लेकर हमारा सम्पूर्ण नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। जब थैलियों के मुंह खुलते हैं तो बाकी सबके मुंह बन्द हो जाते हैं। थैलियों से सम्पन्न लोग अच्छी-खासी प्रतिभाओं को पीछे छोड़कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िले से लेकर लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठापूर्ण प्रतियोगिताओं में भी अपना वर्चस्व बना लेते हैं | …वह भी सारी व्यवस्था को अंगूठा दिखाते हुये। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसम्पदा से भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके हैं। सम्पन्न बस्तर आज भी लंगोटी लगाये खड़ा है। आतंकपूर्ण माओवाद पनपने के लिये इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं क्या?
नक्सलियों ने अब माओवाद का नक़ाब ओढ़ लिया है, उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नज़रबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती। किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है। शातिर अपराधी पत्नियों की आड़ में राज चला रहे हैं। कोई सज्जन व्यक्ति आज सत्ता में क्यों नहीं आना चाहता, यह देश के समक्ष एक विराट प्रश्न है। नक्सलवाद केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में फैल चुका है। किसी भी प्रकार की हिंसा करके या दूसरों के अधिकार के अपहरण से कुछ भी पाने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति मानसिक रूप से नक्सलीआतंकवादी है | क्योंकि ऐसे ही लोग उग्रवाद के अघोषित जनक होते हैं।
नक्सलियों से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है | जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को जीने न देने की कसम खाये बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गयी हिंसायें बहुआयामी होती हैं। प्राण भर नहीं जाते इसलिये दिखायी नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत श्रंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। हमारे ही बीच का कोई साधारण सा या कोई ग़रीब किंतु तिकड़मी व्यक्ति चुनाव में अनाप-शनाप पैसा खर्च करके चुनाव जीतता है। जीतने के कुछ ही वर्षों बाद कई नगरों और महानगरों में फैली करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। यह सर्वविदित होकर भी रहस्य ही बना रहता है कि उस ग़रीब के पास चुनाव में पानी की तरह बहाने के लिये इतना धन आख़िर आता कहाँ से है? जब उंगली उठती है तो निर्धन से अनायास ही सम्पन्न बना वह व्यक्ति चीखने-चिल्लाने लगता है कि सवर्णों को एक ग़रीब और दलित का सत्ता में आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। क्या यह ग़ुस्ताख़ी भी दोहरी हिंसा नहीं? निर्लज्जता की सारी सीमायें तो तब टूट जाती हैं जब वह करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी स्वयं को ग़रीब, दलित और आदिवासी ही घोषित करता रहता है।
भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही जाति और एक ही धर्म है। इसे भी समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा नक्सलवाद है जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुये होती है। पूरे देश में व्याप्त इन अत्याचारों का समुचित निदान किये बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी है।
भारत में नक्सलवाद ,परिवर्तित माओवाद – अतिवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो, वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी “सत्ता के लिये हिंसा” को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ही नक्सलियों की रक्तहिंसा की जननी है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण देती हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान तथा उनके जीवन शैली वह स्मिता-अस्तित्व की रक्षा का समान अवसर प्रदान कर दें, तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी।
सभ्यमानव समाज तो आत्मशासित होना चाहिये, जहाँ किसी शासन की आवश्यकता ही न हो। हो पायेगा ऐसा? सम्भवतः अभी तो नहीं। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज ख़रीद-फ़रोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं, जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं।
तमाम सरकारी व्यवस्थाएं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति, स्थानीय बाज़ारों एवं आवागमन पर यदा-कदा लगने वाले नक्सली कर्फ़्यू से आम जनता को होने वाली अनेक प्रकार की क्षतियों और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण :-
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार :- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव :- अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कानू सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।
3- शोषण की पराकाष्ठायें :- सामान्यतः आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं। नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।
4- सामाजिक विषमता :- सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।
5- जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका :- शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छा बहाना मिल जाता है।
6- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव :- आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
7- लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं कड़े कानून का अभाव :- अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव, विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।
8- आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा :- रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा, अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।
9- स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता :-निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी निरंकुश होते जा रहे हैं।
10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण :- देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना चुका है।
11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश की सुगमता :- विदेशों से आयातित उग्रविचारधारा को भारत में प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल रहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान :-
जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
1- नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास – क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
2- आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।
3- शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता – जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
4- समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
5- कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल – जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
6- आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था – जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
7- कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास – जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।
8- राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
9- चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।
वनवासियों के अस्मिता व स्वत का दूसरा अहम् मुद्दा है जंगल के साथ उनका अन्योन्याश्रय संबंध। पारंपरिक रूप से जंगल और वन-भूमि ही जनजातीय लोगों का आश्रय था और जीविकोपार्जन का माध्यम भी। धीरे-धीरे प्राकृतिक संसाधन के नाम पर जंगल का रख-रखाव सरकार ने अपने हाथों में ले लिया और जनजातीय तथा सरकार के बीच लगातार एक तनाव का माहौल बनता गया। सरकार ने इस बात की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि जंगल जनजातियों की सामाजिक प्रथा और रीति-रिवाज का केंद्र बिंदु रहा है।
वन क्षेत्र पर अपना अधिकार खोने के बाद जनजातियों की जीविका, संसाधन छिन गई और वे गरीबी, भूखमरी तथा आश्रय विहीनता की ओर धकेल दिये गये। यह मात्र दो उदाहरणों से पूर्ण स्पष्ट है कि जहाँ तेंदू पत्ता जंगल में उपलब्ध होता है। जिसका एक बहुत बड़ा बाजार सदियों से है। उस पत्ते को तोड़ने की नीलामी सरकार करने लगी। बड़े-बड़े टेंडर होने लगे। ठीकेदार तेंदू पता आज उन्ही वनवासियों से तुडवाता है। अर्थात् अब वे इस कार्य में एक मजदूर बन के रह गये | जबकि वह पत्ता गैर नीलामी किये हुए वनवासियों से भी खरीदा जा सकता था | जंगल के सूखे पेड़ व गिरे पेड़ के लकड़ियों से वनवासी अपना रहने लायक मकान बनाता था और बड़े ही आनंद से रहता था। पर आज वन संरक्षण के नाम पर सूखे-गिरे पेड़ की लकड़ियों का स्वामित्व अब वन विभाग का हो गया। अब वे अपने मकान बनाकर रहने के लिए अपने नीज के संसाधन से भी वंचित हो गये। आज वन विभाग इन लकड़ियों को एकत्रित कर शहर के आधुनिक लोगों के उपयोग के लिए नीलामी करता है। स्वाभाविक है अपने अधिकार को खो देने व दूसरों के हाथों जाते देख आक्रोश तो होगा ही | जनजातिय समाज पहले भोजन के लिये खेती करते थे, लेकिन अब उसी जमीन में गैर जनजातीय लोगों द्वारा पैसे के लिए अनाज उगाने लगे। जो वनवासियों से छिनकर गैर जनजातियों को नया बंदोबस्त कर दिया गया।
जिन मुद्दों पर नक्सलवाद आंदोलन आज से चार दशक पहले प्रारंभ हुआ था, वे मुद्दे यानि जमीन का अधिकार, भूख का मर्म, वेदना व दर्द आज भी जिन्दा है। उससे भी बड़ी बात उन वनवासियों की जीवन शैली जो आधुनिक जीवन शैली से बहुत ही अलग स्वच्छंद है उसे एक सिरे से नकार देना। जबकि यही जनजातीय समाज शेष समाज से आगे बढकर अठारहवीं सदी के मध्य में ही हमारी जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए व हमारी स्वतंत्रता के लिए सिद्धू-कानू, विरसा मुंडा, तिलका झाँसी, दशरथ मांझी, गंगानारायण सिंह, ताना भगत आदि वीर योद्धाओं ने परतंत्रता की बेडी तोड़ देने के लिए उनके नेतृत्व में वृहद सतत आंदोलन तथा दिशा दिया। ये आंदोलन भारत में कंपनी राज के प्रारंभ से 1776 से ही शुरू हो गये थे। जिस समाज ने देश व समाज के लिए बलिदान देने की परंपरा में अग्र पंक्ति में खड़ा हुआ। वही आज हिंसा व अतिवाद के रास्ते पर चला गया। यह एक विचारणीय विषय है। इसकी जड़ में सामाजिक विषमता है। यह सामाजिक विषमता ही एक पुरे समाज को आर्थिक विषमता की ओर धकेल दिया। जिसका लाभ अलगाववादी सत्तालोलुप विदेशी विचारों से प्रभावित माओवादी लाभ उठाकर उसे अपने हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे है। ध्यान रहे कि माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व वनवासी नहीं हैं। बल्कि इस माओवादी अतिवादी का हथियार यन्त्र बन गया है। यह भी सर्वविदित है कि माओवादी आन्दोलन कोई व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन नहीं है। यह विशुद्ध रूप से सत्ता प्राप्ति का हिंसक अतिवादी आक्रमण है। यह हमारे लोकतंत्र व संस्कृति दोनों पर सीधा आक्रमण है। आज आवश्यकता है इस आक्रमण के हथियार – जो वनवासी, दलित व कमजोर वर्ग बन गया है, इसका निराकरण इस भ्रमित व ठगे गये हथियार रूपी वनवासी, दलित, व कमजोर समाज की सामाजिक विषमता को दूर कर ही किया जा सकता है।
शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विद्रोह के जनक कानू सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टव्यवस्था और पतित नैतिकमूल्यों के प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है …सरकार की भी और समाज की भी। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक है। यही कारण है कि किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं। ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस एड्स का रूप ले चुका है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में एक भृत्य से लेकर हमारा सम्पूर्ण नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। जब थैलियों के मुंह खुलते हैं तो बाकी सबके मुंह बन्द हो जाते हैं। थैलियों से सम्पन्न लोग अच्छी-खासी प्रतिभाओं को पीछे छोड़कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िले से लेकर लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठापूर्ण प्रतियोगिताओं में भी अपना वर्चस्व बना लेते हैं | …वह भी सारी व्यवस्था को अंगूठा दिखाते हुये। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसम्पदा से भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके हैं। सम्पन्न बस्तर आज भी लंगोटी लगाये खड़ा है। आतंकपूर्ण माओवाद पनपने के लिये इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं क्या?
नक्सलियों ने अब माओवाद का नक़ाब ओढ़ लिया है, उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नज़रबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती। किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है। शातिर अपराधी पत्नियों की आड़ में राज चला रहे हैं। कोई सज्जन व्यक्ति आज सत्ता में क्यों नहीं आना चाहता, यह देश के समक्ष एक विराट प्रश्न है। नक्सलवाद केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में फैल चुका है। किसी भी प्रकार की हिंसा करके या दूसरों के अधिकार के अपहरण से कुछ भी पाने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति मानसिक रूप से नक्सलीआतंकवादी है | क्योंकि ऐसे ही लोग उग्रवाद के अघोषित जनक होते हैं।
नक्सलियों से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है | जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को जीने न देने की कसम खाये बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गयी हिंसायें बहुआयामी होती हैं। प्राण भर नहीं जाते इसलिये दिखायी नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत श्रंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। हमारे ही बीच का कोई साधारण सा या कोई ग़रीब किंतु तिकड़मी व्यक्ति चुनाव में अनाप-शनाप पैसा खर्च करके चुनाव जीतता है। जीतने के कुछ ही वर्षों बाद कई नगरों और महानगरों में फैली करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। यह सर्वविदित होकर भी रहस्य ही बना रहता है कि उस ग़रीब के पास चुनाव में पानी की तरह बहाने के लिये इतना धन आख़िर आता कहाँ से है? जब उंगली उठती है तो निर्धन से अनायास ही सम्पन्न बना वह व्यक्ति चीखने-चिल्लाने लगता है कि सवर्णों को एक ग़रीब और दलित का सत्ता में आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। क्या यह ग़ुस्ताख़ी भी दोहरी हिंसा नहीं? निर्लज्जता की सारी सीमायें तो तब टूट जाती हैं जब वह करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी स्वयं को ग़रीब, दलित और आदिवासी ही घोषित करता रहता है।
भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही जाति और एक ही धर्म है। इसे भी समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा नक्सलवाद है जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुये होती है। पूरे देश में व्याप्त इन अत्याचारों का समुचित निदान किये बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी है।
भारत में नक्सलवाद ,परिवर्तित माओवाद – अतिवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो, वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी “सत्ता के लिये हिंसा” को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ही नक्सलियों की रक्तहिंसा की जननी है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण देती हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान तथा उनके जीवन शैली वह स्मिता-अस्तित्व की रक्षा का समान अवसर प्रदान कर दें, तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी।
सभ्यमानव समाज तो आत्मशासित होना चाहिये, जहाँ किसी शासन की आवश्यकता ही न हो। हो पायेगा ऐसा? सम्भवतः अभी तो नहीं। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज ख़रीद-फ़रोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं, जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं।
तमाम सरकारी व्यवस्थाएं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति, स्थानीय बाज़ारों एवं आवागमन पर यदा-कदा लगने वाले नक्सली कर्फ़्यू से आम जनता को होने वाली अनेक प्रकार की क्षतियों और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण :-
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार :- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव :- अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कानू सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।
3- शोषण की पराकाष्ठायें :- सामान्यतः आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं। नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।
4- सामाजिक विषमता :- सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।
5- जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका :- शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छा बहाना मिल जाता है।
6- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव :- आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
7- लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं कड़े कानून का अभाव :- अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव, विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।
8- आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा :- रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा, अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।
9- स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता :-निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी निरंकुश होते जा रहे हैं।
10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण :- देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना चुका है।
11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश की सुगमता :- विदेशों से आयातित उग्रविचारधारा को भारत में प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल रहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान :-
जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
1- नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास – क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
2- आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।
3- शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता – जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
4- समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
5- कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल – जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
6- आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था – जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
7- कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास – जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।
8- राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
9- चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।
16 अगस्त 2016
राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच की स्मारिका “राष्ट्र सुरक्षा कुम्भ” में प्रकाशित
राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच की स्मारिका “राष्ट्र सुरक्षा कुम्भ” में प्रकाशित
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