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Wednesday, 18 October 2017

तन्हा जीवन

दीवाली की खुशियाँ
तो एक पक्ष है
जीवन का होना
और चलना भी
एक पक्ष है
खुद को यादों से
परहेज कर के
खुद को खुद में
जीना होता है

जब बूंदे कुछ गिरी कि
ख्याल भी भीग गये
बड़ी भीड़ हो गयी है
जमाने की नजरों में
इसलिए आजकल
अकेले ही रहना ठीक है

बहुत सँजो कर रखी चीज
वक़्त पर नहीं मिलती
जीवन को कभी तो
खुला छोड़ दे जीने के लिए
बहने दें कुछ
जख्मों के दर्द को
जब लफ्जों का
जेहन भी घुटता हो
जो महसूस होता
वो बयाँ कर दें
जब लफ्जों की
कलाबाजी न होती
जीवन का जो
एहसास होता
तब वहीं लेखनी
उठ चल पड़ती है

पानी के बुलबुलों सा है
ये जीवन सतरंगी
पर बस पल भर ही
जो एहसास जीना होता
कभी कभी वे ही
उकेरे जाते हैं
आईना लेकर
जो भी आये
बस उनका
जमीर देखेगें
सब हैं तन्हा
सभी में खालीपन
तो किस किस की
फिर पीर देखेगें

जहन में एक नाराजगी भी
पर खफा किसी से नहीं
दूर होते जाता है जो
यादों में ठहर जाता है
गुजरते जीवन में थमा हुआ
कोई क्षण जीना भी सिखाता
बहुत पसंद है महँगे तोहफे
पर अगली बार कुछ यों
जरा सा वक़्त कोई लाये

एक होकर भी
सबका बने रहना
बहुत मुश्किल है
चाँद होना
ऐ चाँद
तू भी तन्हा
खुद भी तन्हा
आ जरा गप कर लें
ईधर जीवन ठहरा हुआ है

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