यादों का क्या है
किसी भी पल
ज़हन के द्वार
खटखटा देती हैं
न सोचती
समझती
विचारती
न ही संकोच करती हैं
बिन बुलाए मेहमां सी
देहलीज़ पर
पग धर देती हैं
बड़ी बिगड़ैल हो गयी हैं
ये यादें
देर रात को
टहलने निकलती हैं
यादें कुछ ऐसी हैं, जैसे
कहानी की नायिका
हर अंक में चली जाती है
अन्त को एकाकी छोड़कर
अपनी विवशताओं के साथ
जहाँ नायक
दुखान्त सहानुभूति को लिखता है
किसी भी पल
ज़हन के द्वार
खटखटा देती हैं
न सोचती
समझती
विचारती
न ही संकोच करती हैं
बिन बुलाए मेहमां सी
देहलीज़ पर
पग धर देती हैं
बड़ी बिगड़ैल हो गयी हैं
ये यादें
देर रात को
टहलने निकलती हैं
यादें कुछ ऐसी हैं, जैसे
कहानी की नायिका
हर अंक में चली जाती है
अन्त को एकाकी छोड़कर
अपनी विवशताओं के साथ
जहाँ नायक
दुखान्त सहानुभूति को लिखता है
0 comments:
Post a Comment