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Friday, 13 October 2017

चंचल मन

चंचल मन

मन को कहाँ
सीमाओं का पता है
ये तो बस
भागने में लगा है
कभी शून्य में
शून्य हो जाता है
तो कभी ब्रह्मांड
नापने को चला है
जो प्रश्न समय लेते हैं
उभरने में
वे कई नये प्रश्न भी
खड़ा कर देते हैं
जो स्मृतियों में
शेष रह जाता है
वो भी क्या गंगा
में बह जाते हैं
वह पतझड़ ही क्या
जो बीता याद न दिलाये
वह सावन ही क्या
जो मन को भिगो न पाए
कुछ ऐसा भी है
आखिर तक कहानी का
हिस्सा न बन पाया
ऐसा पात्र ही क्या
स्वयं की कहानी में
अजनबी बन जाता है
या इतना भी अह्म
चरित्र क्या निभाया कि
उसमें से बाहर हो न सका
एक सीमा के अन्दर
मन को जो मिल गया
वह मुकाम नहीं
जो छू गया
वो चाँद नहीं

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