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Thursday 26 October 2017

यात्रा - अकेला से एकांगी की

ये जीवन
और कुछ नहीं
वस्तुतः
अकेलेपन से
एकांत की ओर
एक ऐसी यात्रा है
जिसमें
रास्ता भी हम हैं
राही भी हम हैं
और मंज़िल भी
हम ही हैं

इस जीवन के सफर में
इसके गतियुक्त रिश्ते में
न जाने कितने लोग
हमसफर बन जाते हैं
पर मंज़िल पर पहुंचकर
एक बार ठहर जाता
यह जीवन भी
साथ ही काल भी
ठहर जाता है
अपनी ही गति से
स्तब्ध हो आँखें
खुली की खुली
रह जाती, फिर से
अकेले हो जाते हैं हम

एक छोटी सी
कश्ती में चल
पार उतरना है
धीरे-धीरे खेना
बस दरिया को
जगाना नहीं है

जीवन में वो यादें
जो अकेले में आती
वे यादें ही कहाँ ?
याद वो है जो
महफ़िल में आये और
अकेला कर जाये

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